Friday, December 11, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (8)

जइसे टिल्लू क पहिलेहे ते पता होए कि अब का होए वाला है। टिल्लू अपन बस्ता दुआरे हे धरि दीन्हेनि हवेली केरे गेट क तीर और ह्वानै ठाढ़ हुइके गाना गावन लाग, ख्वाजा मेरे ख्वाजा..दिल में समा जा, ......अली का दुलारा.., ख्वाजा मेरे ख्वाजा..।लरिकवा केरि आवाज़ म सुर लागत हैं। औ इ गइहू बहुत आराम ते रहे लेकिन इनकेरि आवाज़ भीतर तक दादी क काने पर परि रही। टिल्लू अपन सुर तनिक देर रोकेनि औ झांकि क भीतर द्याखन लाग कि असल म दादी तक उनकेरि आवाज़ पहुचिहु कि नाईं। फिर जानौ संका भै कि आवाज़ भीतर लगे पहुंचि नाई रही तो इनते रहा नाई गा। ज़ोर त हुंकारेनि, दादी, ओ दादी। अरे जल्दी आओ।जइसे कौनौ ड्यूटी कर रहे होएं वइसे फिर ह्वानै ठाढ़ हुइके अपना गाना गावन लाग, ख्वाजा मेरे ख्वाजा...दिल में समा जा..

आवाज़ भीतर लगे पहुंचि चुकी अहै औ अपन असरौ दिखा चुकी अहै। काहे क भीतर त दादी केरे बरबरावै की आवाज़ अब टिल्लू केरे सुरन के साथ संगत करन लागि है, अरे हमहू ह्याने इत्ता बखत काटि लीन। लरिकवन की पलाई पोसाइहू कइ लीनि। लेकिन, पता नाईं यू कलमुहां कहां त पंडितन के घर मा जनम लई लीन्हेनिस। लागति है मुसलमान बनिकेहे मानी। आवाज़ के साथै साथ दादी हवेली ते बाहर निकरीं। उनि के हाथे म तांबे क्यार एकु लोटा है। यू लोटा दादी केवल पूजा पाठ म इस्तेमाल करती है या फिर कहूं कुछ पवित्र करे क होए तो। जाड़े क मौसम और साम क टाइम। कोहरा तनुक तनुक परन लागि है। राह म लोग दुआरे ठाढ़े लरिका क द्याखत निकरि रहे। कौनो मफलर काने तक बांधे है त कौनो हाथ मसलत जाए रहा। एहि टाइम दादी लोटा लइके गेट तक आईं और लोटा क्यार पूरा पानी टिल्लू क ऊपरि डारि दीन्हेनि। साथे म उइ श्लोक पढ़न लागीं, ओम अपवित्रा वा पवित्रा....।टिल्लू क स्वेटर के भीतर पानी गा तो जानौ करंट लाग होए। बेचरऊ जाड़न म कंपकंपा गे। ऐसे लाग जैसे पानी सीधे हड्डिन पर परा होए।

तेहिलेहे टिल्लू के पिताजी यानी शुक्लाजी हवेली म प्रवेस कीन्हेनि, अरे यू का। तुम अब घरै पहुंचे हो औ यू का आजु फिरि। शुक्लाजी की बातन त पता परति है कि टिल्लू और दादी क यू मोर्चा अक्सरै लागा करति है। जइसे टिल्लू केरि मुसलमानन त मोहब्बत कम नाई परति है वइसेहे दादी क्यारि नफरतौ कम नाई हुई पा रही, आजु फिरि इ बदरुद्दीन केरे दरवाजे पर बैठे चिट्ठी लिखति आहीं। कित्ती दांय समझावा इनका कि स्कूल तेरे सीधे घरै आवा करौ, लेकिन सुनतै नाईं। बड़ा गांधी बनैक शौक चर्रावा है इनका।शुक्लाजी टिल्लू क्यार बस्ता उठाएन औ खोपड़ी त लइके कमर तक भीगि चुके टिल्लू केरि बांह पकरेनि। टिल्लू अपने पिताजी की तरफ देखेनि औ बजाय कौनौ माफी या गलती केरे प्रायश्चित केरे सीधे सवाल कई दीन्हेनि, पिताजी, का गांधी जी हू दूसरेन केरि चिट्ठी लिखति रहैं बचपन मइहा।शुक्लाजी कुछु बोले नाईं। याक दांय अपने लरकिवा क तन देखेन औ फिर अपनी अम्मा तरफ। दादी लरिकवा केरे इ सवाल त भौंचक्किया गईं। शुक्लाजी लरिकवा क बांह पकरे पकरे भीतर चलि दीन्हेनि। कल्लू लपकि क शुक्लाजी की किताबें पकरेनि, टिल्लू क्यार बस्ता उइ उठइयां रहैं लेकिन शुक्लाजी मना कई दीन्हेनि। अब लगै सब लोग दालान तक आ चुके रहैं, टिल्लू खटाखट अपन कपड़ा उतारिक फेंकेन। शुक्लाजी तौलिया लइके टिल्लू क्यार बाल सुखावन लाग। दादी भीतर चली गईं। टिल्लू दूसर कपड़ा पहिनेन औ फिर ते ख्यालै जाएक तैयार। पिताजी तेरे धीरे त पूछेनि, हम तनिक द्यार खेलि आई बाहेर।

द्याखौ बच्चा, कौनो के साथ ख्यालै म कौनौ बुराइ नाई है। बुराई है दूसरेनि केरि गलत बात सीखेम। (फिर शुक्लाजी अपनि आवाज़ तनुकु ऊपर कइकै ब्लावन लाग जेहिते दादी या बात ज़रूर सुनि लें) हमका पूरा भरोसा है तुम ऐस कौनो काम न करिहौ जेहिते दादी क तकलीफ होए।शुक्लाजी अपने लरिकवा क समझा रहे। दादी या बात सुनि लीन्हेनि औ मंदिर म पूजा की बाती संभारति संभारति कुछ बरबरानीं। लेकिन तेहिले टिल्लू अपने पिताजी ते हौसला पाक दुआरे निकरि गे। टिल्लू याक दांय पाछे मुड़ि के देखेनि। शुक्लाजी मुस्कुरान। टिल्लू केरे चेहरौ परते तनाव हटा औ वोऊ मुस्कुरा दीन्हेनि। दादी पूजा क कमरा म कुछ कर रहि रहै तेहिले हे उनके हाथे त तांबा वाला लोटा छुटि क फर्श पर जोर केरि आवाज़ करति भै गिरा, टन्नननननन।

टन्ननननननननन, एकु लोटा लुढ़कति भा आयशा केरे गेट त बाहर गली म आ गा। टिल्लू जौन दौरति भै घर ते निकरे रहे, उनके पाएं तेरे यू लोटा आक टकरान त उइ एकदमै त रुकिगे। टिल्लू अलमूनियम क्यार यू लोटा उठाएन औ आयाशा केरे गेट कि तरफ द्याखन लाग। गेट खुला, वहितै चंदन जैस महकति भै आयशा निकरीं। टिल्लू क देखेन, कहां चलि दीन्ह्यौ छोटे मियां?” टिल्लू सवाल जवाब क मूड म बिल्कुलौ नाई जानि परत हैं, कहूं नाईं ख्यालन जा रहे रहन। तुम एत्ती बड़ी हुइगइ हौ औ तुम ते एकु लोटौ नाईं संभरति?” आयशा क इ लरिकवा तेरे इ बतकही केरि तनिकौ उम्मीद नाई रहै। पिछली दांय यू मिला रहे तौ बाज़ार केरि भगदड़ि मइहां। आजु दुआरे मिला तौ एहिका पारा आसमान पर ऐस जानि परति है। आयशा चुहल केरि कोसिस कीन्हेनि, हाय दइया। बड़े सख्त मिज़ाज मालूम देत हौ छोटे मियां। अल्ला मियां खैर करै कि बड़े नाई हौ, नहीं तौ....

(जारी....)

3 comments:

Amrendra Nath Tripathi said...

दादी तौ बड़ी सख्त अहैं .. सही कही तौ दादिऊ नाहीं
जनतीं कि वै केतना और काहे सख्ति अहैं .. हाँ टिल्लू
मियाँ म जौन बदलाव आवा है वाहिका आयसा के माध्यम से
कहुवायौ .. माहौल चुपचाप बदलत है .. ई बात अबहीं तक
कान म गूजत अहै .. '' .......... अल्ला मियां खैर करै कि बड़े नाई हौ, नहीं तौ....”

Khushdeep Sehgal said...

पंकज भाई,
व्यस्तता के चलते नियमित टिप्पणी नहीं कर पा रहा हूं...लेकिन दिल से आप से कभी
दूर नहीं हूं...बाकी अवधी उपन्यास ज़ोरदार चल रहा है...भाषा समझने में मुझे थोड़ा
लोचा है...लेकिन जो भी समझ आ रहा है वो शानदार है...

जय हिंद...

Unknown said...

अमरेंद्र भाई, तबियत अब कइसि है। तुम्हरे टिप्पणी क्यार हमका बेसब्री त इंतज़ार रहति है।
खुशदीप भाई, धन्यवाद। इसे बाद में हिंदी में भी लिखने की योजना है।