
स्कूल कि यूनीफॉर्म पहिरे तमाम लरिकवा स्कूल कि तरफ दौरत जा रहे। राह म साइकिल वाले ऐसी वैसी बचिकै निकरि रहे कि कौनो लरिकवा चोटा ना जाए। बाज़ार क्यार दुकानदार अपनी अपनी दुकानदारी म मसरुफ हुइगै हैं। बाज़ार म लोगन कि आवाजाही बढ़न लागि है। टिल्लू इन पंचन के बीच त निकरैक कोसिस कइ रहे। तबहिनै एकु मोटरसाइकिल वाला रफ्तार मइहा भीड़ म घुसति है और याक बुर्केवाली तेरे टकराएव के बाद आगे निकरि जाति है। टिल्लू अपनिहि धुनि मा मगन आगे आगे जा रहे। मोटरसाइकिल वाला टिल्लू त टकरावै वाला रहै कि तबहिनै याक बुर्कावाली टिल्लू क्यार हाथु पकरि क किनारे खींचि लीन्हेसि। बुर्का तनिक द्यार कइहां चेहरा पर ते हटा तो टिल्लू तुरतै इनका पहिचान लीनिहेनि, “आयशा।“
“यू बताओ तुम इत्ता बेखयाली म काहे रहत हौ, अबहि यू मोटरसाइकिल वाला...?” आयशा कि आवाज़ म बड़प्पन औ ममता क्यार घुला मिला रंग जानि परा लेकिन टिल्लू आयशा क पहलि दांय बाज़ार म देखि क हैरान हैं, “अरे तुम हियन का कर रही हौ।“ “द्याखत नाई हौ खरीदारी।“ “लेकिन चेहरा छिपाए केरे?” आयशा टिल्लू केरे इ सवाल पर कुछू बोली नाईं, बस मुस्कुरा दीन्हेनि। टिल्लू क यू जान परा जैसे दादी जौनि परी वाली कहानी सुनवति हैं, उनहिन तेरे याक परी निकरि कि इनके सामने ठाढ़ि हुइगे है। फिर एकदम त उनका होस आवा तो बोले, “बतउति काहे नाईं, यू काला कपड़ा?” आयशा का समझावैं इ नान्हें लरिका कइहां कि बुर्का काहे पहिना जाति है। बस एत्तहै कहि पाईं, “तुम स्कूलै जाओ नहितौ देर हुई जाई।“ तबहि एकदम तेरे आयशा केरि नज़र टिल्लू ते थोड़ा दूरी पर पीछे आवत याक मनई पर परी। पाएन म चकाचक पालिस कीन्हि भई काली चप्पल। काली किनारी केरि कलफदार धोती। याक हाथ म बंधा सुर्खं कलावा। दूसरे हाथे म चकमति गोल्डन घड़ी। दस बजै वाला है। तनिक तनिक पियर रंग क्यार रेसम क्यार कुर्ता। गले म छ्वाट छ्वाट रुद्राक्षन केरि माला। चेहरा पर अलग तरह क्यार कर तेज़ दिखाई पर रहा। माथे पर लाग है चंदन औ रोली क्यार टीका।
आयशा समझ गईं कि टिल्लू अबहि हियन त नाई भाग तो बिचरेउ केरि आफत आ जाई। धीरे त टिल्लू केरे कान क तीर अपन होंठ लाक बुदबुदाईं, “जल्दी भागौ, तुम्हार पिताजी पीछे आ रहे।“ “अरे हमका देखेन तो नाईं।“ “ना अबै तक तो नाई देखेनि लेकिन तुम जल्दी तेरे निकरौ हियन तेरे।“ नान्ह क्यार टिल्लू फटाफट आगे जा रहे लोगन केरे बीच त जगह बनाएनि औ स्कूल क तरफ निकर भाग। आयशा कि सांस म सांस आई। तबहीं शुक्लाजी सामने त निकरे। शुक्लाजी केरि नज़र आयशा प परी तो उई चौंके। आयशौ शुक्लाजी क देखि तुरते हाथ जोड़ि कि नमस्ते कीन्हेनि और खोपड़ि झुकाएकि आगे निकरि गईं। शुक्लाजी स्वाचन लाग, “आयशा! खान साहेब केरि बिट्यावा। या तौ वक़ालत पढ़न गै रहै रायपुर- हिदायतुल्ला यूनीवर्सिटी मइहां।“ लेकिन शुक्लाजी केरि कौनौ बात सुनै खातिर आयशा हुअन कहां रहैं। उन तौ निकरि गईं आगे। भीड़ क बीच जगह बनावत। शुक्लाजी तनिक द्यार ऐसे हे ठाढ़ वहिका देख्यात रहे। फिर चलि परै कॉलेज की तरफ।
कॉलेज अब हियन त दिखाई परन लाग है। आवै जावै वाले लोगन म ते तमाम लोग रुकि कै शुक्लाजी की पैलगी कर रहे हैं। याक दुई लोग नमस्ते कइके हो आगे बढ़ि जात दिखाई परत हैं। तबहिने सड़क किनारे बने मेडिकल स्टोर क्यार मालिक दुकान त निकरि आवा औ शुक्लाजी के पाएं छूएसि, फिर हाथ जोड़ि क ठाढ़ हुइगा, “मास्टर साहब। इंटरवल म टाइम निकारि कि अइसि आय्ओ त तनुक इ ड्रग इंसपेक्टर वाला मामला देखि लीन्ह्यो।“ शुक्लाजी मेडिकल स्टोर वाले क खोपड़ी तेरे अपन आशीर्वाद क खातिर धरा हाथ हटाएन औ बोले, “अरे तिनगारी हम तो आज भोरहरे त निकरे हन। गै रहन गोड़ियाने म पंचायत करन। अब द्याखौ इंटरवल म खाना खाए घरै जइबे तो टाइम मिलति है कि नाईं। वैसे तुम्हार तो लाइसेंस किराए क्यार है। तुम का कौन परेसानी।“ तिनगारी क चेहरा पर परेसानी साफ दिखाई देति है, “अरे मास्टर साहब लरिकन क रोटी चलि जाति है इ दुकान तेरे नहितौ अब हियन कहां दुकानदारी। सबै तो कानपुर उन्नाव त सामान लावन लाग हैं। कस्बन म तो अब दुकानदारिहु चौपट हुइगै है। एकु लरिकवा राखा रहै, अंग्रेजी पढ़ै लिखे खातिर वहौ भागि गा।“
“कौनौ बात नाई। तुम फिकरि ना करौ। हम देखि देबे यू मामला।“ शुक्लाजी केरि बात सुनिकै मेडिकल स्टोर वाले तिनगारी क चेहरे पर तनिकि राहत आई। दून्हौ जन जब तक बात करति रहे, लोग शुक्लाजी क्यार पाएं छुअन खातिर हुअन लाइन लगा दीन्हेनि। शुक्लाजी याक दांय फिरि ते उइ छ्वार देखेनि जैसी आयशा गइ रहैं। आयशा केरि दूर याक झलक दिखाई दीन्हेसि। शुक्लाजी फिर कुछु स्वाचन लाग।
(जारी...)
4 comments:
सच्ची बताई अवधी क्यार आपकै यह प्रयास बहुत सराहनीय है क़ासिद कई जेतना हिस्सा हम्मै पढ़ै का मिला परहत बेर यू लागत रहा जैसे कौनो गाँव मोहल्ला कै किस्सा सुनावत होए आजै कौनो बुक स्टाल पे जाइके किताब लेईत है फिर हम लिक्खीत है कि हम्मै कित्ता मज़ा दिहिस. वैसे अपनी ओर कै एक किस्सा श्रीलाल शुक्ल जी भी अपने उपन्यास राग दरबारी मा लिक्खे हैं लेकिन जेत्ता बढ़ियाँ एहमा लाग ओह्कै बड़ा कारण एह्कै भाषो अवधी मा होब रहा ऐसन कोशिश आप करत रहोऊ औ अमर लाए ऐसन कौन काम नज़र आवै तौ ज़रूर सौपिहैं धन्यवाद
बहुत बहुत धन्यवाद, शिरीष।
पंकज भैया !
हम जनित हन कि टिपियाब कतरा जरूरी अहै ... पर यकीन मानौ कि हम कौनौ
हालत मा ई काम न छोड़ब सिवाय बीमार-अजार हुवे के ...अगर हम भरोसे लायक
हन तौ काम जारी राखौ ... का कीन जाय जब लोगन का अच्छा पढ़ै कै समझ नाय रहि
गै ... अउर तौ अउर , अपनी भासा वाले तौ औरै बहि गए हैं ...बहरहाल दिनकर
लिखे हैं कि '' जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास '' यहि लिए लगा रहौ ...
चौथा भाग पढ़ेन ... ई ससुरा १० बजे कै टाइम अइसने होत है जब मसरूफियत चरम
पै रहत है ... यहि मसरूफियत मा टिल्लू का आयशा बचाई लिहिन , ई का कम बड़ी
बाति है ... सुकुल जी तौ खैर , का कही , इन सबके मारे तौ बुरका उठिन न पाए ...
सरसता बनी अहै, लागत है जैसे फिलिम देखित अहन ... हमैं अस मजा अउर केहू
के ब्लॉग पै नाय आवत ... दिल्ली मा रहिके कुछ देरि के खातिर जैसे गांव चला
जाइत हन ... अउर का चाही ... ...
जेतना तुम कई रह्यौ वाहै बहुत है, अमरेंद्र भैया। तुमरेहे हुसकावै पर यू काम चालू भा है और इ उपन्यास का पूरा श्रेय तुमकै जाति है। कहूं कौनौ बात अखरै तौ वहौ ज़रूर बताएयो।
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