Saturday, December 05, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (5)

स्कूल म दूसर घंटी बाजे के बाद सब लरिकवा औ मास्टर मैदान म एकट्ठा भे। पहिले प्रार्थना भै फिर राष्ट्रीय गान। प्रार्थना खत्म होए क बाद सब लरिकवा अपनी अपनी क्लासन म जा रहे। टिल्लू क साथै तीन चार लरिकवा औरउ है। टिल्लू का वंदे मातरम बहुत नीक लागत है। उइ अब्यौ गुनगुनाए रहे – सुजलाम सुफलाम। तबहिनै टिल्लू क पाछे पाछे आवत लरिकवा टिल्लू क ट्वाकति है, यार यू गाना जब स्कूल म गावा जाति है तो हम पंचे तो चुप्पै ठाढ़ रहिति।टिल्लू क या बात सायद पहली बार पता चली। हुइ सकत लाइन म ठाढ़े रहै कि वजह तेरे कबहू इ बात पर इ गौर नाई कीन्हेनि। मुला आज या बात जैसे ही इनका पता चली, टिल्लू चौंके, काहे? रफ़ीक?”

घर पर मौलवी साहब आवत है उर्दू पढ़ावन, उइ कहति हैं कि यू गाना बुत परस्ती आय।रफ़ीक सब बात साफ साफ कह दीन्हेनि। बुत परस्ती, का मतलब एहि क्यार?” टिल्लू खातिर यू शब्द अजूबा लाग। लेकिन रफ़ीकौ केरि उमर सायद या सब समझै वाली है नाई, यार, समुझि तो हमहूं नाईं पाएन लेकिन मौलवी साहब कहति हैं तो मानै क तो परिबै करी। अब्बू हु कहत रहै कि स्कूल म वंदे मातरम ना गाएओ।टिल्लू रहत ज़रूर मुसलमानन के पड़ोस म हैं लेकिन इनकौ या बात आजु पहली बार पचा चली तो बिचरेऊ स्वाचन लाग। कहै लाग, पता नाईं हुई सकत है इ गानै म कुछ मामला होए। आजु पुछिबे पिताजी तेरे। चलौ यार क्लास क्यार टाइम हुईगा। घंटा लागे देर भै।

लरिकवन क बातचीत चलि ही रही रहै तेहि लगे पीछे त पीटीआई मास्टर साहब आएगे। उन क्यार हाथ धीरे त टिल्लू केरे कांधा प परा औ बहुतै गंभीर आवाज़ सुनाई परी, प्रेयर क बादि सीधे क्लासै जाएक चाहि। हियन ठाढ़े का बतकही हुई रही?” “बस मास्टर साहब जइहि रहे रहन।टिल्लू औरु कुछु बोलि ना पाए। पीटीआई मास्टर साहब पानी म ईंटा मारि क आगे निकरि गे। ई पीटीआई मास्टर साहब हमका लैकि एत्ता परेसान काहे रहत हैं?” टिल्लू तनुक झंझुलान। लेकिन रफ़ीक टिल्लू क कंधे पर हाथ धरिकै समझाएन कि परेसान न हो। सब लरिकवा क्लास की तरफ चलि दीन्हेनि। रफीक याक दांय पीछे मुड़ि के देखेन। पीटीआई मास्टर साहब केरि नज़र वहिकै तरफ लागी दिखाईं परीं। रफ़ीक तनिकु सहमि ऐसि गे। सब लरिकवा बरहीं क्लास के आगे ते निकरे। क्लास म टिल्लू क पिताजी अंगरेजी पढ़ा रहे। टिल्लू की रफ्तार तनिकु तेज़ हुइगे। सब लरिकवा आगे निकरि कि अपनी अपनी क्लास म दाखिल हुइगे।

घर मा सब अपन अपन काम निपटा रहे। दादी रसोई त बाहर निकरीं औ हाथ धोक तख्त पर आराम करन लागीं। नाउन दाईं आंगन म पोंछा लगा रहीं औ कल्लू घर केरे कीमती फर्नीचर पर ते गर्दा साफ करि रहे।

गली क उइ छ्वार अमीर हसन अपने लकड़ी क टाल पर दुई चारि बुजुर्ग मौलविन के साथै कौनिउ बात म मशगूल हैं। एकु मौलवी शुक्लाजी की अटारी पर लाग लाल झंडा तन उंगरी करति है। हवा आजु तनुक तेज़ चलति है। तूल क्यार झंडा हवा म पूरी रफ्तार त लहरा रहा।

स्कूल क बाहर बिल्कुल सन्नाटा है। दुई चार रिक्सा वाले अपन अपन रिक्सा लाइन त लगाए रहे। कुछ मेहरिया और बुजुर्ग लोग गेट पर इकट्ठा हुई रहे। स्कूल क भीतरौ बिल्कुल सन्नाटा जानि परत है। अलग अलग क्लासन मइहां मास्टर लरिकवन क पढ़ा रहे हैं। तबहिनै स्कूल की घंटी बाजति है। छुट्टी कि घंटी। लरिकवा क्लासन त भर्रु मारिक क भागति हैं। कौन क कोई बात केरि फुर्सत नाईं। जूनियर सेक्सन क्यार लरिकवा तो ऐसे भाग जानौ जेल क फाटक खुलिगा होए। स्कूल त लइकै बाज़ार तक लरिकवै दिखाई परि रहे।

लकड़ी की टाल पर मौलविन की बातचीत औ कानाफूसी जारी है। टाल क सामने वाली यानी हिंदुआने तरफ केरि गली तेरे शुक्लाजी आवत दिखाई पर रहे। अपने अपने दुआरे बैठ लोग उनका नमस्ते करत हैं। याक दुई लरिकवा चौतरा परे ते उतरि क उनके पाएं छुई रहे। टाल पर बैठे मौलविन केरिउ नज़र शुक्लाजी पर परति है, उइ हुअन त उठिकै जान लाग। शुक्लाजी अपनी हवेली के गेट तक पहुंचे तो जैसे आदतन उन केरि नज़र याक दांय टाल तन चली गै। शुक्लाजी केरि नज़रें अमीर हसन त मिलीं। दून्हौ याक दूसरे क देखेन। अमीर हसन क चेहरा पर कौनौ भाव नाईं आवा। बस दून्हन की नज़रे याक दूसरे त टकराईं। जानौ मसीन क्यार पुर्जा होएं, ऐसिहि जुंबिश भै औ दून्हन क्यार हाथ याकै साथ ऊपर उठे। शुक्लाजी केरे मुंह ते निकरा – नमस्ते। अमीर हसन बुदबुदान – सलाम अलैकुम। शुक्लाजी हवेली क गेट खोलिक भीतर दाखिल हुइगे।

(जारी...)

3 comments:

Amrendra Nath Tripathi said...

भैया !
अच्छी पठनीयता बनति अहै.कहानी से केतनी बड़ी बात आप
कहत अहैं यहिका हम बखूबी जानत अहन. सांप्रदायिक-भावना
कैसे बच्चा के अन्दर पैठि बनावत है , यहिके लिए का सुन्दर विधान
बनायौ है !

अगर फिलिम बने के बादि हमैं न देखायौ तौ तुहिन का कोसब .
जेसस हम पढित अहन , वसस दिमाग मा चित्र चलत अहै. हमार सौभाग्य
है कि एतनी सुन्दर रचना पढ़त अहन .

आगे कै इंतिजार करत अहन... ...

Unknown said...

ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो
कुरोनो - उपनिषद खोले हुए हैं

Unknown said...

धन्यवाद अमरेंद्र और शिरीष भाई। ऐसेहे स्नेह बनाए रह्यो। ई कहानी पर फिलिम बनावै कि तमन्ना है द्याखौ कब संयोग बनै।