Thursday, December 17, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (10)

आयशा याक दाएं सोचेन कि यू लरिकवा जौनि बात कहि रहा है, वइहमा एहि क्यार मतलबु का है। बतइहौ तो नाईं... आयशा तनिक द्यार कइहां हिचकिचानि कि कहूं याक बाह्मन केरे लरिका साथै बातै करेम कौनौ बतंगड़ ना बनि जाए। फिर ना जानै का सोचिक, ऊई अपन हाथु आगे बढ़ा दीन्हेनि।

हमते दोस्ती करिहौ?

आयशा क्यार नरम नरम मुलायम दूध जइस सफेद हाथि देखि केरे टिल्लू तनुक सकपनान। उनका अपन ग्वार रंग फीका लागन लाग। येउ तनिक द्यार सोच म परिगे। मुसलमानन केरि बिट्यावा। उमरि म दूनी। कहूं दादी देखि लीन्हेनि तौ और मुसीबत। लेकिन फिर ना ना जानै का सोचिक, येउ अपना हाथु आगे बढ़ा दीन्हेनि।

दून्हन क्यार हाथ याक दूसरे ते मिले। आयशा क अच्छा लाग कि चलौ येहि वीराने म कोऊ त अपन मिला। टिल्लू स्वाचन लाग क गांव भरे क लरिका इ बिट्यावा केरि बस बातै हे करत हैं, लेकिन या खुदै हमते दोस्ती क्यार हाथ बढ़ावा हइस। अपनी किस्मत पर टिल्लू इतरावै एहिते पहिलेहे आयशा अपना हाथ वापस खींचेन।

तनिक द्यार ह्यानै रुकौ। आयशा एत्ता कहिके वापस मुड़ीं औ दौरत भै घरै चली गईं। टिल्लू अबै लगे दुआरेहे ठाढ़ हैं। समहे टाल परिहा तमाम मनई लकड़ी खरीदि रहे। टिल्लू उई छ्वार कइहां अपनि पीठ कई लीन्हेनि कि कौनौ ऐसी देखिबौ करै तो पहिचान न पावै। लेकिन, टाल मालिक टिल्लू क तड़ि ही लीन्हेनि। लेकिन कहेनि कुछु नाईं, तनिक द्यार तक उई टाल तन पीठी कीन्हे ठाढ़ लरिकवा क द्याखत रहे, फिर वापस चले गे अपनी गद्दी तन।

टिल्लू क लाग कि आयशा लागत है लौटि क ना अइहैं। उइ अपनि गदोरिया सहलावन लाग, येहि गदोरिया तेरे तो टिल्लू आयशा क पहली दांय छुआ हइन। लेकिन तेहिलिहे आयशा दौरतै फिर लौटीं, इ लेओ छोटे मियां। खजूर। बहुतै मीठी है। बिल्कुल तुमरी नायं। अब्बा दुबई तेरे पठई तेनि।

पिताजी कहि रहे रहैं कि आपकेरि सादी तय हुइहै है।टिल्लू तेरे जानौ आयशा कइहां इ बात केरि उम्मीद ना रहै। उइ मनहिं मन मा स्वाचै लागि कि यू लरिका त हमरे बारे म बहुत कुछु जानति है। फिरौ उनइ जानब चाहेनि, तुमका को बताएसि?”

टिल्लू कुछ नाइ बोले। बस याक खजूर निकारि क मुंह मा धरेन। जइसे कि बरसन त खजूर खाति रहे होएं, एहि तना सर्र त गूदा खाक गुठली राह पर फेंकेनि औ गावन लाग, लाख छुपाओ छुप ना सकेगा राज़ हो कितना गहरा।

दिल की बात बता देता है असली नकली चेहरा।

आयशा क कुछु समझि म नाई आवा। इ गान क हियन का ?”

तुम ना समझिहौ। काला अक्षर भैंस बराबर?”

आयशा अपन सवाल भूलि क टिल्लू क लरिकईं पर हंसन लागीं। टिल्लू अपन खजूर खात भै चलि दीन्हेनि। तबहीं उन केरि नज़र परी आयशा क दालान म बिरे परे अख़बारन पर। काला अक्षर भैंस बराबर? तै फिर इ अखबार?”

आयशा क लाग कि जइसै उनकी चोरी पकरि लीन्हि गै होए। उइ तुरतै बात बनाएनि, अरे, उ का है.. द द दिन नाई कटति है ना। तो बस फोटो द्याखा करिति हन।आयशा तमाम कोशिश कीन्हेनि कि कइसेओ लरिकवा क्यार ध्यान भटकि जाए लेकिन टिल्लू केरे चेहरा क्यार भाव नाईं बदले। उइ कबहूं अखबार तन तो कबहूं आयशा क तन द्यखात रहे। हां, हाथे क खजूर जरूर याक क बाद दूसर मुंह मा डारब टिल्लू नाई भूले।

आयशा क जानि परा कि मामला गड़बड़ हुई सकति है। तो उइ टिल्लू केरि पीठ प धक्का दीन्हेनि, जाओ, तुम्हार दोस्त सब इंतज़ार करत हुइहैं। औ कहूं दादी छति पर आ गईं तौ...

दादी क नाम सुनतै टिल्लू खजूर खात खात हुअन तेरे चलि दीन्हेनि। आयशा क चेहरा पर बड़ी देर बादि मुस्कान आ पाई।

सूरज अस्त होएहै वाला है। टिल्लू क घर मा नाउन दाई तख्त प अइसे वइसे फैले अख़बार समेटि रहीं। तख्त पर पूजा केरि याक तैयार थाली धरी है। शुक्लाजी टेलीविजन देखि रहे औ कौनौ बात पर मुस्कुरइहू रहे हैं। दादी हाथे म चाय क कप लीन्हे आईं औ शुक्ला जी केरि घाईं ध्यान त द्याखन लागीं।

(जारी...)

2 comments:

Amrendra Nath Tripathi said...

हे भैया !
कास टिल्लू की जगहीं हम होइत .. लंठई के अंदाज मा नाय कहत अही , अरे अस
ग्यान पावै का मिलत न यहिते !
आयसा तौ '' बनी बुद्धू '' कै रोल करि रही है अउर '' दोस्तिव ! '' ... बिना '' काला अक्षर
भैंस बराबर '' होए अस करत न बनत .. बतावो हमैं ई भेद कैसे खुले ? .. का खुलब जरूरी अहै !
बहुत नीक लिखे हौ ... अच्छा अहै आपसे मिलै से पहिले आपके लेखनी से बखूबी मिलि लियत हन ..

Unknown said...

अभी तो ये अंगड़ाई है..आगे बहुत लड़ाई है..