Sunday, December 20, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (11)

दादी चाय क कप लैइके बिल्कुल नेरे आ गईं तबहिनौ शुक्लाजी का पता नाई चला। ऊ पता नाईं टीवी म का देखि क बस मुस्कुरवतै रहे। दादी चाय क कप नेरे याक स्टूल पर धरि दीन्हेनि।

का बात है बच्चा? का देखि क मुस्कुरा रह्यौ?”

शुक्लाजी शायद अबहिनौ अपनी अम्मा केरि बात नाईं सुनेनि। उन क्यार ध्यान बस टेलीविजन क तरफै लाग है। दादी अबकि धीरे त अपने लरिका क्या हाथ पकरेनि औ मुंह ऊपर घाईं कईके बोलीं।

बेटा, हमार मन कहति है कि यू घर बेचिक हिंदुआने म भीतर तन कौनौ दूसर घर लइ लेओ।

शुक्लाजी अबकि एकदम ते चौंके। उई अपनी महतारी तन द्याखन लाग। उनकी अम्मा चाहे कित्तौ मुसलमानन तेरे जरति बुझति रहीं होए लेकिन ऐइस बात ऊई कबहूं नाईं कीन्हेनि। फिर अब का हुइगा?

काहे, अम्मा? का भा? इ घर मा का खराबी है?”

दादी क मन म अब लगै जौन कुछ भीतरै भीतर चलि रहा रहै। अपने लरिका क सवाल सुनिकै बाहर आवन लाग।

तुम नाई समझिहौ। आजु काल्हि गांव क हवा कुछु ठीक नाईं है। अमीर हसन केरे टाल पर ना जाने कहां कहां क्यार मौलवी आक डेरा जमावन लाग है। पता नाईं का का साजिशै रची जा रही हैं आजु काल्हि अमीर हसन क टाल पर। औ टिल्लू क द्याखौ, येऊ ना जाने कहां कहां त औ का का सीखन लाग हैं।

घर मा टीवी- किताबैं अऊर स्कूल म पढाई म खोए रहै वाले शुक्लाजी का लाग मामला संगीन है। ऊई खट्ट त टीवी ऑफ कई दीन्हेनि औ अपनी अम्मा क्यार हाथु पकरि क अपने नेरे बिठा लीन्हेनि। कहां तौ महतारी अबै लगै लरिकवा क समझावा करतीं रहैं, अब बदलति बयार का बहाव द्याखौ। लरिका क अम्मा क्यार मन टट्वालै क परा।

अम्मा, मन चंगा तो कठौती में गंगा। तुम काहे परेसान हुई रह्यू। कुछु नाईं होई, औ अमीर हसन भला हम लोगन क्यार नुकसान काहे चइहैं?”

दादी कइहां शायद दिन भर घर मा नाऊन दाई औ कल्लू के रहत्यौ सूनापन सतावन लागन लाग है। दादी अपने पिछलै दिनन की बात यादि कइकै गुमसुम होन लागीं, पता नाईं काहे लेकिन अकेले म अब हमार जी घबरान लाग है। इ लोगन क कौनौ भरोसा नाईं। द्याखत नाईं हौ रोजु त कहूं न कहूं बम धमाकन केरि खबरै टीवी पर आवा करती हैं।

अम्मा, धमाका सहरन म होति हैं। हम लोगन का? हियन कौन भीड़ भड़क्का होति है, औ हियन तो कौनौ ऐसि इमारतौ नाईं कि आतंकवादी वहिमा धमाका कइकै दुनिया क कुछु दिखावन चइहैं। हियन तौ अब्यौ राम रहीम औ किसन करीम साथै साथ काम करति हैं।शुक्लाजी ऐसे ब्लावनग लाग जइसे अपनी अम्मा का न बल्किनु अपने लरिकवा क समझा रहे होएं।

अम्मा। या पुरखन क ज़मीन अहै। एहिका छोड़ि क हम लोग कहां जइबे। औ धर्म का है, या बात क अब हमका तुमका बतावैक परी। धर्म क्यार मतलब तो तुम हमका बचपनै त सिखावा हऊ। यू हिंदु मुसलमान क्यार झगड़ा तो उन लोगन क्यार है जिनका पतै नाईं कि धर्म होति का है? तुम ऐसै काहे स्वाचन लागी हौ?”

अब दादी का बतावैं कि उनका सबसे ज्यादा फिकर टिल्लू केरि होनि लागि है। बुढ़ापा म वइसेहो वहि ताना लरिकवा छांड़ि क पोता पियार हुई जाति है जइसै बनिया क असल छांडि क सूद। उई पता नाईं का स्वाचन लागीं। शुक्लाजी अम्मा क समझा क फिर ते टीवी ऑन कीन्हेनि। चैनल बदलति बदलति न्यूज़ चैनल पर आए तो उन केरि अंगुरि जइसे रिमोट पर अपने आप रुकि गईं। टीवी पर मुंबई बम धमाकन म तीन लोगन क फांसी क सजा सुनाए जाएक खबरि आ रही।

टीवी पर एंकर खबर पढ़ि रही।

मुंबई बम धमाकों के मामले में मकोका की विशेष अदालत ने आज तीन दोषियों को फांसी की सजा सुना दी। इनमें एक महिला भी शामिल है। फांसी की सज़ा पाने वालों के नाम हैं...अजमल...

इ चैनल पर शुक्लाजी रुकि तो गे, लेकिन एकदमै त उनका यादि आवा कि थोरी देर पहिला का बात चलि रही रहै। ऊ तुरतै टीवी ऑफ कई दीन्हेनि। पलटि क अपनी अम्मा तन देखेन, अम्मा अबकी गौर त शुक्लाजी तन निहारि क द्याखन लागीं। शुक्लाजी अम्मा केरि आंखिन क्यार सवाल पढ़ि तौ लीन्हेनि, लेकिन शायद इन क्यार उत्तर उनके तीर न रहैं। ऊई अपना मुंह दूसरी तन घुमा क द्याखन लाग। दादी समझि गईं कि लरिकवा अब इ मुद्दा पर बात करैक मूड म नाईं है। ऊई उठीं औ नाऊन दाई त पूजा क थाली लावै क कहिकै भगवानेन केरे कमरा म चली गईं। जात जात एत्तै कहेन, टिल्लू क आवाज़ दइ देओ। कुबेरि बेरिया हुइगै अब वहिका घरै बुला लेओ।

(जारी...)

Thursday, December 17, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (10)

आयशा याक दाएं सोचेन कि यू लरिकवा जौनि बात कहि रहा है, वइहमा एहि क्यार मतलबु का है। बतइहौ तो नाईं... आयशा तनिक द्यार कइहां हिचकिचानि कि कहूं याक बाह्मन केरे लरिका साथै बातै करेम कौनौ बतंगड़ ना बनि जाए। फिर ना जानै का सोचिक, ऊई अपन हाथु आगे बढ़ा दीन्हेनि।

हमते दोस्ती करिहौ?

आयशा क्यार नरम नरम मुलायम दूध जइस सफेद हाथि देखि केरे टिल्लू तनुक सकपनान। उनका अपन ग्वार रंग फीका लागन लाग। येउ तनिक द्यार सोच म परिगे। मुसलमानन केरि बिट्यावा। उमरि म दूनी। कहूं दादी देखि लीन्हेनि तौ और मुसीबत। लेकिन फिर ना ना जानै का सोचिक, येउ अपना हाथु आगे बढ़ा दीन्हेनि।

दून्हन क्यार हाथ याक दूसरे ते मिले। आयशा क अच्छा लाग कि चलौ येहि वीराने म कोऊ त अपन मिला। टिल्लू स्वाचन लाग क गांव भरे क लरिका इ बिट्यावा केरि बस बातै हे करत हैं, लेकिन या खुदै हमते दोस्ती क्यार हाथ बढ़ावा हइस। अपनी किस्मत पर टिल्लू इतरावै एहिते पहिलेहे आयशा अपना हाथ वापस खींचेन।

तनिक द्यार ह्यानै रुकौ। आयशा एत्ता कहिके वापस मुड़ीं औ दौरत भै घरै चली गईं। टिल्लू अबै लगे दुआरेहे ठाढ़ हैं। समहे टाल परिहा तमाम मनई लकड़ी खरीदि रहे। टिल्लू उई छ्वार कइहां अपनि पीठ कई लीन्हेनि कि कौनौ ऐसी देखिबौ करै तो पहिचान न पावै। लेकिन, टाल मालिक टिल्लू क तड़ि ही लीन्हेनि। लेकिन कहेनि कुछु नाईं, तनिक द्यार तक उई टाल तन पीठी कीन्हे ठाढ़ लरिकवा क द्याखत रहे, फिर वापस चले गे अपनी गद्दी तन।

टिल्लू क लाग कि आयशा लागत है लौटि क ना अइहैं। उइ अपनि गदोरिया सहलावन लाग, येहि गदोरिया तेरे तो टिल्लू आयशा क पहली दांय छुआ हइन। लेकिन तेहिलिहे आयशा दौरतै फिर लौटीं, इ लेओ छोटे मियां। खजूर। बहुतै मीठी है। बिल्कुल तुमरी नायं। अब्बा दुबई तेरे पठई तेनि।

पिताजी कहि रहे रहैं कि आपकेरि सादी तय हुइहै है।टिल्लू तेरे जानौ आयशा कइहां इ बात केरि उम्मीद ना रहै। उइ मनहिं मन मा स्वाचै लागि कि यू लरिका त हमरे बारे म बहुत कुछु जानति है। फिरौ उनइ जानब चाहेनि, तुमका को बताएसि?”

टिल्लू कुछ नाइ बोले। बस याक खजूर निकारि क मुंह मा धरेन। जइसे कि बरसन त खजूर खाति रहे होएं, एहि तना सर्र त गूदा खाक गुठली राह पर फेंकेनि औ गावन लाग, लाख छुपाओ छुप ना सकेगा राज़ हो कितना गहरा।

दिल की बात बता देता है असली नकली चेहरा।

आयशा क कुछु समझि म नाई आवा। इ गान क हियन का ?”

तुम ना समझिहौ। काला अक्षर भैंस बराबर?”

आयशा अपन सवाल भूलि क टिल्लू क लरिकईं पर हंसन लागीं। टिल्लू अपन खजूर खात भै चलि दीन्हेनि। तबहीं उन केरि नज़र परी आयशा क दालान म बिरे परे अख़बारन पर। काला अक्षर भैंस बराबर? तै फिर इ अखबार?”

आयशा क लाग कि जइसै उनकी चोरी पकरि लीन्हि गै होए। उइ तुरतै बात बनाएनि, अरे, उ का है.. द द दिन नाई कटति है ना। तो बस फोटो द्याखा करिति हन।आयशा तमाम कोशिश कीन्हेनि कि कइसेओ लरिकवा क्यार ध्यान भटकि जाए लेकिन टिल्लू केरे चेहरा क्यार भाव नाईं बदले। उइ कबहूं अखबार तन तो कबहूं आयशा क तन द्यखात रहे। हां, हाथे क खजूर जरूर याक क बाद दूसर मुंह मा डारब टिल्लू नाई भूले।

आयशा क जानि परा कि मामला गड़बड़ हुई सकति है। तो उइ टिल्लू केरि पीठ प धक्का दीन्हेनि, जाओ, तुम्हार दोस्त सब इंतज़ार करत हुइहैं। औ कहूं दादी छति पर आ गईं तौ...

दादी क नाम सुनतै टिल्लू खजूर खात खात हुअन तेरे चलि दीन्हेनि। आयशा क चेहरा पर बड़ी देर बादि मुस्कान आ पाई।

सूरज अस्त होएहै वाला है। टिल्लू क घर मा नाउन दाई तख्त प अइसे वइसे फैले अख़बार समेटि रहीं। तख्त पर पूजा केरि याक तैयार थाली धरी है। शुक्लाजी टेलीविजन देखि रहे औ कौनौ बात पर मुस्कुरइहू रहे हैं। दादी हाथे म चाय क कप लीन्हे आईं औ शुक्ला जी केरि घाईं ध्यान त द्याखन लागीं।

(जारी...)

Sunday, December 13, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (9)

अरे तो एहिते का भा। छोटे बड़े क बात एहिमा कहां ते आगै। बात कौनौ नई चीज़ सीखै कि होए तो छोटेहो बड़ने का सिखा सकति हैं।टिल्लू अबकी दांय पूरे भरोसे के साथ बोले। उई जा तो रहे रहैं ख्यालन लेकिन आयशा तेरे मुचौटा करेम उनका मज़ा आवन लाग है। आयशा क तनिकौ उम्मीद न रहै कि गांव क यू लरिका एतना फरवट होइ ब्वालैम। टिल्लू क बात उनका तनुक समझि आई औ तनुक नहिंयू आई। बस एत्तै कहि पाईं, अच्छा जैसे...।टिल्लू की ज़ुबान पर तौ जैसे आजु सरस्वती बैठि अहै। कहे लाग, वौ दोहा नाई सुना हउ, रहिमन देख बड़ेन को लघु ना दीजिए डार, जहां काम आवै सुई, काह करे तलवार।“ “औ एहिका मतलब का भा, यहो बता देओ रहीम दास जी। तनुक हम अनपढ़ का यहौ समझा देओ।आयशा जौने कामे त घर ते बाहर दौरी आई रहै वा बात इ भूलि गईं। अब इनकौ टिल्लू त बतियावै म बढ़िया लागन लाग। वइसेहो जबते इ फत्तेपुर आई हैं, कौनौ बौल्यै बतियावै वाला तो मिला नाईं। टिल्लू क आयशा क बोली म मिठास जानि परी। उई हाथे म लोटा पकरे नेरे आए औ व्हानै दीवार ते टिकि कै ठाढ़ हुइगै, कहै लाग कि समझाइति है, तनुक धीर धरौ।

आयशा क तन द्याखत भै टिल्लू कहन लाग, द्याखौ, एहिका मतलब यू भा कि बड़न क देखि क छ्वाटन कइहां नजरअंदाज न करैक चाही। काहेक जौन काम सुई कई सकति है, वौ काम कईयू ब्यारा तलवार नाई करि सकति।“’ अपनी बात कहिकै टिल्लू टुकुर टुकुर आयशा क तन द्याखन लागि कि इनका रहीम दास केरि बात क्यार मर्मु समझु म आवा कि नाईं। आयशा अब पूरी तरह तेरे ठिठोली केरे मूड म दिखाई परन लागीं। हंसिकै बोलीं, अरे हमका कहां चमका? हम ठहरिनि निपट गंवार, काला अक्षर भैंस बराबर। तुम तो सब जानत हौ ना, स्कूल पढ़न जात हौ ना?” जौने मोहल्ला म सब लरिकवा पूरा पूरा दिन गिल्ली डंडा औ कंचा ख्यालै म बिता देत हौए, हुअन बारा त्यारा साल केरे लरिकवा के स्कूल जाए कि बात पर तारीफ होए तो नीक तौ लगिबै करी। टिल्लू क्यार चेहरा एकदम ते चमकि गहा। उई अपनी बुशशर्ट क्यार कालर ठीक कीन्हेने। पैंट तनुक ऊपर सरकाएनि। बारेन म हाथ घुमाएन औ ऐसे तनिके ठाढ़ हुइगे जैसे अबहिने बैरिस्टरी पास कइके लौटे होएं, औ का, हमेसा क्लास म फस्ट।

आयशा केरि समझि म नाई आवा कि ऊइ तारीफ जादा कई दीन्हेनि कि यू लरिकवा वाकई अपनी पढ़ाई केरे गुमान म है। तबहिनौ बात क परकावै खातिर कहेन, हमेसा क्लास म फस्ट? मुला हमेरे कौनौ काम क्यार?” टिल्लू क ऐस जानि परा जानौ आयशा उनकेरे वजूद पर सवाल उठा दीन्हेनि क हुइहौ तुम पढ़े लिखे लेकिन मतलब तौ तब हल होए जब उनके कौनौ काम क्यार हो। तुरतै उनका हाथे म पकरा लोटा यादि आवा, काहे कौनौ काम क्यार काहे नाईं, अबही तुमार लोटा नाली म जाए त बचावा कि नाईं। टिल्लू क चेहरा अबकी थ्यारा तमतमा अइस गा। आयशा क लाग कि लरिकवा कबूं उनकी बात क्यार बुरा न मानि जाए। उई बात संभारै कि कोसिस कीन्हेनि, अरे हां, वौ तो तुम बहुन नीक कीन्ह्यौ छोटे मियां। वहिके खातिर बहुत बहुत शुक्रिया। औ हां, सुना है कि चिट्ठी बहुत कायदे त लिखत हौ तुम?” तारीफ ऐस तीर है जौनु हमेसा निसाना पर लागति है। टिल्लू क पारा थ्वारा नीचे आवा, हां, कबहू जरूरत परै तो बता दीन्ह्यौ। अबै जाइति है। दादी देखि लीन्हेनि...तो..” “तौ का ठंडे पानी त नहिबैक तो परी औ का? अच्छा सुनौ, खजूर खइहौ?” आयशा सुलह सफाई पूरी होति देख अपन आखिरी तीर आजमाएन। तीर फिर ते निसाना पर लागि। टिल्लू अपने होंठन पर जीभ फिराएनि। मिठाई कौने लरिका केरि कमज़ोरी नाई होति। लेकिन दादी। टिल्लू की आंखि फौरन हवेली केरे गेट तक देखेनि। फिर छत घांई द्याखन लाग कि कहूं दादी हुअन ना ठाढ़ी होएं। आखिर अपने आप त सवाल पूछेनि, खजूर?” याक दांय फिर ते उइ अपने होंठन पर जीभ फेरेनि औ धीरे तक आयशा के घर के दरवाजा कि देहरी तीर आ ठाढ़ भे, कौनौ क बतइहौ तो नाईं।

(जारी...)

Friday, December 11, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (8)

जइसे टिल्लू क पहिलेहे ते पता होए कि अब का होए वाला है। टिल्लू अपन बस्ता दुआरे हे धरि दीन्हेनि हवेली केरे गेट क तीर और ह्वानै ठाढ़ हुइके गाना गावन लाग, ख्वाजा मेरे ख्वाजा..दिल में समा जा, ......अली का दुलारा.., ख्वाजा मेरे ख्वाजा..।लरिकवा केरि आवाज़ म सुर लागत हैं। औ इ गइहू बहुत आराम ते रहे लेकिन इनकेरि आवाज़ भीतर तक दादी क काने पर परि रही। टिल्लू अपन सुर तनिक देर रोकेनि औ झांकि क भीतर द्याखन लाग कि असल म दादी तक उनकेरि आवाज़ पहुचिहु कि नाईं। फिर जानौ संका भै कि आवाज़ भीतर लगे पहुंचि नाई रही तो इनते रहा नाई गा। ज़ोर त हुंकारेनि, दादी, ओ दादी। अरे जल्दी आओ।जइसे कौनौ ड्यूटी कर रहे होएं वइसे फिर ह्वानै ठाढ़ हुइके अपना गाना गावन लाग, ख्वाजा मेरे ख्वाजा...दिल में समा जा..

आवाज़ भीतर लगे पहुंचि चुकी अहै औ अपन असरौ दिखा चुकी अहै। काहे क भीतर त दादी केरे बरबरावै की आवाज़ अब टिल्लू केरे सुरन के साथ संगत करन लागि है, अरे हमहू ह्याने इत्ता बखत काटि लीन। लरिकवन की पलाई पोसाइहू कइ लीनि। लेकिन, पता नाईं यू कलमुहां कहां त पंडितन के घर मा जनम लई लीन्हेनिस। लागति है मुसलमान बनिकेहे मानी। आवाज़ के साथै साथ दादी हवेली ते बाहर निकरीं। उनि के हाथे म तांबे क्यार एकु लोटा है। यू लोटा दादी केवल पूजा पाठ म इस्तेमाल करती है या फिर कहूं कुछ पवित्र करे क होए तो। जाड़े क मौसम और साम क टाइम। कोहरा तनुक तनुक परन लागि है। राह म लोग दुआरे ठाढ़े लरिका क द्याखत निकरि रहे। कौनो मफलर काने तक बांधे है त कौनो हाथ मसलत जाए रहा। एहि टाइम दादी लोटा लइके गेट तक आईं और लोटा क्यार पूरा पानी टिल्लू क ऊपरि डारि दीन्हेनि। साथे म उइ श्लोक पढ़न लागीं, ओम अपवित्रा वा पवित्रा....।टिल्लू क स्वेटर के भीतर पानी गा तो जानौ करंट लाग होए। बेचरऊ जाड़न म कंपकंपा गे। ऐसे लाग जैसे पानी सीधे हड्डिन पर परा होए।

तेहिलेहे टिल्लू के पिताजी यानी शुक्लाजी हवेली म प्रवेस कीन्हेनि, अरे यू का। तुम अब घरै पहुंचे हो औ यू का आजु फिरि। शुक्लाजी की बातन त पता परति है कि टिल्लू और दादी क यू मोर्चा अक्सरै लागा करति है। जइसे टिल्लू केरि मुसलमानन त मोहब्बत कम नाई परति है वइसेहे दादी क्यारि नफरतौ कम नाई हुई पा रही, आजु फिरि इ बदरुद्दीन केरे दरवाजे पर बैठे चिट्ठी लिखति आहीं। कित्ती दांय समझावा इनका कि स्कूल तेरे सीधे घरै आवा करौ, लेकिन सुनतै नाईं। बड़ा गांधी बनैक शौक चर्रावा है इनका।शुक्लाजी टिल्लू क्यार बस्ता उठाएन औ खोपड़ी त लइके कमर तक भीगि चुके टिल्लू केरि बांह पकरेनि। टिल्लू अपने पिताजी की तरफ देखेनि औ बजाय कौनौ माफी या गलती केरे प्रायश्चित केरे सीधे सवाल कई दीन्हेनि, पिताजी, का गांधी जी हू दूसरेन केरि चिट्ठी लिखति रहैं बचपन मइहा।शुक्लाजी कुछु बोले नाईं। याक दांय अपने लरकिवा क तन देखेन औ फिर अपनी अम्मा तरफ। दादी लरिकवा केरे इ सवाल त भौंचक्किया गईं। शुक्लाजी लरिकवा क बांह पकरे पकरे भीतर चलि दीन्हेनि। कल्लू लपकि क शुक्लाजी की किताबें पकरेनि, टिल्लू क्यार बस्ता उइ उठइयां रहैं लेकिन शुक्लाजी मना कई दीन्हेनि। अब लगै सब लोग दालान तक आ चुके रहैं, टिल्लू खटाखट अपन कपड़ा उतारिक फेंकेन। शुक्लाजी तौलिया लइके टिल्लू क्यार बाल सुखावन लाग। दादी भीतर चली गईं। टिल्लू दूसर कपड़ा पहिनेन औ फिर ते ख्यालै जाएक तैयार। पिताजी तेरे धीरे त पूछेनि, हम तनिक द्यार खेलि आई बाहेर।

द्याखौ बच्चा, कौनो के साथ ख्यालै म कौनौ बुराइ नाई है। बुराई है दूसरेनि केरि गलत बात सीखेम। (फिर शुक्लाजी अपनि आवाज़ तनुकु ऊपर कइकै ब्लावन लाग जेहिते दादी या बात ज़रूर सुनि लें) हमका पूरा भरोसा है तुम ऐस कौनो काम न करिहौ जेहिते दादी क तकलीफ होए।शुक्लाजी अपने लरिकवा क समझा रहे। दादी या बात सुनि लीन्हेनि औ मंदिर म पूजा की बाती संभारति संभारति कुछ बरबरानीं। लेकिन तेहिले टिल्लू अपने पिताजी ते हौसला पाक दुआरे निकरि गे। टिल्लू याक दांय पाछे मुड़ि के देखेनि। शुक्लाजी मुस्कुरान। टिल्लू केरे चेहरौ परते तनाव हटा औ वोऊ मुस्कुरा दीन्हेनि। दादी पूजा क कमरा म कुछ कर रहि रहै तेहिले हे उनके हाथे त तांबा वाला लोटा छुटि क फर्श पर जोर केरि आवाज़ करति भै गिरा, टन्नननननन।

टन्ननननननननन, एकु लोटा लुढ़कति भा आयशा केरे गेट त बाहर गली म आ गा। टिल्लू जौन दौरति भै घर ते निकरे रहे, उनके पाएं तेरे यू लोटा आक टकरान त उइ एकदमै त रुकिगे। टिल्लू अलमूनियम क्यार यू लोटा उठाएन औ आयाशा केरे गेट कि तरफ द्याखन लाग। गेट खुला, वहितै चंदन जैस महकति भै आयशा निकरीं। टिल्लू क देखेन, कहां चलि दीन्ह्यौ छोटे मियां?” टिल्लू सवाल जवाब क मूड म बिल्कुलौ नाई जानि परत हैं, कहूं नाईं ख्यालन जा रहे रहन। तुम एत्ती बड़ी हुइगइ हौ औ तुम ते एकु लोटौ नाईं संभरति?” आयशा क इ लरिकवा तेरे इ बतकही केरि तनिकौ उम्मीद नाई रहै। पिछली दांय यू मिला रहे तौ बाज़ार केरि भगदड़ि मइहां। आजु दुआरे मिला तौ एहिका पारा आसमान पर ऐस जानि परति है। आयशा चुहल केरि कोसिस कीन्हेनि, हाय दइया। बड़े सख्त मिज़ाज मालूम देत हौ छोटे मियां। अल्ला मियां खैर करै कि बड़े नाई हौ, नहीं तौ....

(जारी....)

Monday, December 07, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (7)

दुबई सहर। दोपहरि हुइगै औ सूरज जि तना जेठ म अपने हियां तपति है, वहिते कई दर्जा ऊपर सूरज दुबई म तपि रहा। सड़क पर हिया हुआं याक दुई मज़ूर दिखाई परति हैं औ जिनका बहुत ज़रुरी है वेई घर ते बाहर निकरे हैं। चाहे पैदरि होय या फिर एसी कारन मइहां। दुबई म दौलत सड़कन पर हर तरफ नज़र आवति है। लेकिन बर दुबई के आगे औ सहर त बस तनिकुइ दूरि पर है मज़ूरन क मोहल्ला केस। गांव देहात छोड़ि क अमीर बनन आए तमाम हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, बंगलादेसी, नेपाली और श्रीलंका क्यार रहैया हियन ऐसे रहति हैं जैसे याकै गांव क्यार रहै वाले होएं औ बरसन ते याक दूसरे क पहिचानति हैं। रहै क खातिर कौनौ कौनो भागसाली कमरा पागे नहितों तमाम लोग अपने हियन रेलगाड़िन पर लदे दिखाई देन वाले लोहे के बड़े बड़े कंटेनरन म हियन घर बनाए हैं। लोहे क दीवारै धूम प जब तपती हैं तो याहै लागति है जैसे भीतर रहै वाला तंदूर पर पकि रहा।

आजु जुम्मा है। जुम्मा क दिन दुबई म छुट्टी रहति है। हियन लोग सनीचर तेरे हफ्ता केरि सुरुवात मानत हैं। मज़दूरन कि येई बस्ती मा बनी मस्जिद तेरे खान साहब याक नई उमरि क लरिका केरे साथ निकले। दून्हन के सिर पर धागन त बुनी भै खास नमाज़ी टोपी है। ख़ान साहब कि कमर म तनिकु झुकी है। पता नाईं ऊमर क बोझ है कि जवान बिटिया के बियाहे क्यार, उई सहारा लेइके धीरे धीरे डोलि रहे। माथे पर चुहिचुहा आवा पसीना दुसरे हाथे त प्वाछति प्वाछति बोले, मियां, इ बुढ़ापा म अब या गर्मी नाई झेलि जाति। आयशा क्यार निक़ाह हुई जाए तो बस ह्ववानै गांव म रहनि लगिबे। जौनु कुछु या मेहनत है तो बस बिट्यावा केरे बियाहे तकै है। फिर दुई मनईन का गुज़ारा ख़ातिर त फत्तेपुरै म कुछ कुछ न कुछ करि लेबे। हम ना अइबे फिर ते लौटिक इ तपिश मइहां।लरिकवौ उनकि हां म हां मिलाएसि, हां, चच्चा। अपनी धरती प जौनि तसल्ली है, वा दूसरे मुलुक म भला कहां?” खान साहब लरिकवा क बात म दर्द महसूसेन, लेकिन लरकिवा क हौसला न टूटे, एहिते बात बनाए दीन्हेनि, तसल्ली क खू बात कीन्ह्यो तुम। तसल्ली कहूं नाई है वा तौ आंखी बंद होएक बदि ही मिलति है। और रहि गै बात अपने मुलुक केरि तो मियां जहां अल्ला मियां क सहारा मिलि जाए वाहै अपनि जगह, वहै अपनि जमीन।

लरिकवा बतकही के मूड म दिखाई परा, तुरतै सवाल दागि दीन्हेसि, कौनौ ख़बरि आई का गांव तेरे?” “अरे भइया हम तो ऊपर वाले हे के सहारे छांडि आए रहेन। औ हुअन पता नाईं बेगम क कौनु समझाए दीन्हेसि, उई चली गईं पड़ोस केरि मेहरियन संग मोतियाबिंद क अपरेसन करावे सरकारी अस्पताल। इ सरकारी डाक्टरन क कौनौ मोह माया तौ है नाईं। रही सही नज़र रहै वहौ चली गै। यू तौ कहौ आयशा केरि पढ़ाई पूरी होइ चुकि रहै तो वा आ गै वापस गांवै। नहिं तौ न जाने का होतै। कहां तो वहिके अरमान रहै सहर म अपन औ अपने गांव क नांव रोशन करेक, कहां बिचरेउ परी हैं गांव म अम्मा की देखभाल म।दून्हू जनै बातें करत करत खान साहब क घर के नेरे आएगे। अपन दून्हौ हाथ उठाएक खान साहब फिरिते दुआ मांगेनि, या अल्लाह, हमरी बिटिया पर रहम करति रह्यो। एकु दोस्त रहै गांव म वहौ फिरकापरस्तन के साथे हुइ लीन्हेसि।“ “अच्छा चच्चा सलाम।लरिकवा खान साहब त विदा लइके रुखसत भा। खान साहब अपन कंटेनर मइहां बने घर के अंदर दाखिल हुइगे।

फतेपुर चौरासी म स्कूल की छुट्टी हुई चुकी है। चपरासी हर दर्जा मइहां झांकि झांकि केरे ताला लगा रहा। शुक्लाजी स्कूल के गेट त बाहर निकरि रहे हैं। हाथ म दुई चार किताबैं उनके हमेसा रहति हैं।

आयशा अपने घर के अहाते में बैठि हैं। समहें याक घर के चौतरा पर बैठ टिल्लू उनका दिखाई पर रहे। टिल्लू के नेरे संझली बैठी हैं, छोटक्केन की अम्मा। छोटेक्केन के अब्बा ओमान म नौकरी करति है और घर ते उन क्यार रिस्ता बसि चिट्ठिनै तेरे जुड़ा है। यू तो टिल्लू कइहां इ मोहल्ला कि मेहरिया परका लीन्हेनि चिट्ठी लिखै क ख़ातिर नहिं तौ इ मोहल्ला म चिट्ठी लिखउबौ कौनौ जंग जीतेत कम नाई रहै। जब पोस्टमैन चिट्ठी लैके आवै तो वहिकि चिरौरी करौ, पैसा कौड़ी देओ औ तबहूं उनका मन होए तो उई चिट्ठी लिखै नहिं तौ कहौ कहि दें कि टाइमै नाईं।

टिल्लू क संझली आजु फिर दुआरे त निकरति भै बुला लीन्हेनि। बस्ता तेरे याक किताब निकारि क टिल्लू वहि पर कागज़ धरे पेन खोलि रहे, चच्ची, पिछले हफ्ता जौनि चिट्ठी लिखवाई रहौ, वहि क्यार जवाब आवा कि नाईं।संझली क आंखिन म आंसु भरि आए, बोलीं, कहां बच्चा। पता नाई मिली होकि ना। टिल्लू क्यार पेन खुलि चुका है। संझली ब्वालब सुरू करें वहिके पहिले उइ चिट्ठी क माथा बिंदी बनावत हैं। दहिने छ्वार ऊपर गांव क नांव लिखेनि, फिर आजु केरि तारीख डारेन। और फिर लिखन लाग - जनाब बदरुद्दीन साहब, बाद सलाम के मालूम हो कि यहां सब खैरियत से हैं। और आपकी खैरियत खुदा बंद करीम से नेक चाहते हैं। दीगर अहवाल ये है..। संझली बोलीं, अबै का लिख्यौ?” टिल्लू मुस्कुरान लाग। अपनी काबिलियत प गुमान करेक मौका मिलतै टिल्लू खुस हुई जाति हैं, चच्ची, घर पर जौनि चिट्ठी अवती हैं, उनके सुरु म लिखा रहति है अत्र कुशलं तत्रास्तु। लेकिन, जौनी चिट्ठी हम चच्चा केरि पढ़िति है, उनकेरि सुरुआत ऐहि तरह होति है - बाद सलाम के मालूम हो कि यहां सब खैरियत से हैं। और आपकी खैरियत खुदा बंद करीम से नेक चाहते हैं। दीगर अहवाल ये है..तौ वहै हमहूं लिखि दीन।संझली क तो ऐसै लाग जैसे चिट्ठी कौनौ बरह्मन क्यार लरिकवा की बजाय पिछवाड़े के मदरसा क्यार लरिका लिखि रहा होए। टिल्लू की खोपड़ी प उई दुलार ते हाथ फेरेन औ अपनी बात ब्लावन लागीं। टिल्लू क्यार पेन रफ्तार पकरि लीन्हेसि। ईद आवै वाली है अउर घर पर याकौ पैसा नाई हैं। बड़क्केन का कपड़ा बनवावैक हैं अउर बाहर वाला किवाड़ौ बदलावै वाला है। गांव की हवा ठीक नाई है।टिल्लू क आखिर केरि लाइन समझि म नाई आई। उई ऐसी वैसी सूंघेन औ फिर चच्ची कि तरफ द्याखन लाग।

साम क बेरिया है। हल्की हल्की हवा चलि रही। ऐसी संझली टिल्लू कि खोपड़ी पर हाथ फेरेन, वैसी दादी छत पर आ पहुंची कौनौ काम तेरे। लरिकवा क याक मुसलमान के चौतरा पर बैठे देखि क तो जैसे उनका करंट लागि गा। पूरी ताकत लगाक उई चिल्लानी, टिल्लू....

दादी कि उमरि भले जादा होए लेकिन आवाज़ म उनकि अब्यौ दम बाकी है। पूरे मोहल्ल म आवाज़ गूंजी। आयशा अपने अहाता म बैठे बैठे हे चौंकि परीं। टिल्लू आवाज़ सुनेनि तो वोउ सनाका भे। जल्दी जल्दी बाइ एयर वाले लिफाफा क भीतर कागज धरेनि और चिट्ठी संझली के हवाले कई के बस्ता उठाक कूदि परे चौतरे क नीचे और पलक झपकै क पहिले पहुंचेगे अपने दुआरे।

(जारी...)

Sunday, December 06, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (6)


दादी तख्त प बैठे लकड़ी कि रिहल पर धरी रामचरित मानस पढ़ि रहीं। पासै म बाई काम करि रही। टिल्लू तख्त पर बैठि हैं। स्कूल केरि यूनीफॉर्म पासै म परी है, इ केवल कच्छी पहने तख्त प बैठ हैं। सब किताबें पूरे तख्त प हियन हुअन फैली परी हैं। दादी क रामचरित मानस पाठ जारी है, परहित सरिस धरम नहीं भाई। पर पीड़ा सम..तबहिनै टिल्लू अपना सवाल दागिन, दादी, रफ़ीक वंदे मातरम काहे नाईं गावति हैं?” टिल्लू यू सवाल बाल सुलभ हरकत केरे साथ पूछेनि लेकिन जैसे इ सवाल ना होए कौनौ बम फाट होए। नेरे काम कर रहि नाउन दाई एकदम त पोछा लगावब बंद कई दीन्हेनि। दादी हु क्यार पाठ बीचै म रुकि गा। बगल म काम कर रहा कल्लू क्यार हाथ जहां क तहां रुकि गे। दादी क चेहरा पर गुस्सौ है औ इ सवाल क लैके बेचैनी हु। उइ अब्यौ गौर त टिल्लू क्यार चेहरा देखि रहीं। नाउन दाई औ कल्लू इंतज़ार म हैं कि दादी का बोलिहैं। दादी लंबी सांस लीन्हेनि औ इत्तै कहि पाईं, इ जौन मुसलमान हैं...। तेहिलेहे शुक्लाजी दालान तक पहुंचिगे।

शुक्लाजी अपनी जेब त पेन निकारि क नेरेहे धरी मेज पर धरेन। कल्लू लपकि कइहां शुक्ला जी के हाथ ते किताबें पकरेसि औ अलमारी म ठीक त लगावन लाग। शुक्लाजी अपन कुर्तौ निकारि क कल्लू क पकरा दीन्हेनि औ बगल म धरी आराम कुर्सी पर पसरि गे। नाइन दाऊ पीतल क नक्काशीदार गिसाल म पानी लईं आईं। शुक्लाजी पानी क्यार दुई घूंट लइके टिल्लू क तरफ देखेन औ मुस्कुराति भै बोले, का सामान्य ज्ञान बढ़ावा जा रहा है टिल्लू बहादुर?” दादी जौन अबै लगे चुप्पै बैठि रहैं, रामचरित मानस कि पुस्तक सम्याटै लागीं, साथै म अपने लरिका त बोलीं, बच्चा, अब तुमही समझाओ एहि सनीचर क। पता नाईं कहां कहां त औ का का सीखि आवति है और दिमाग हमार खराब कीन करति है।टिल्लू क समझि नाइ आवा कि उइ कौनि गलती कई दीन्हेनि। उई बसि दादी क बरबरावति देखि रहे। शुक्लाजी अपने लाडले कि तरफ देखि क मुस्कुराए तो टिल्लू कि जान म जान आई। चेहरे क्यार तनावौ दूर भागि गा। दादी उठिकै चली गईं किताब धरन। तो दून्हू बाप बेटा क्यार संवाद सुरु हुइगा।

पिताजी, आयशा काले कपड़ा काहे पहनती हैं?” टिल्लू अपन पहिला सवाल भूलि क नवा सवाल कई दीन्हेनि। अब लगै दादी रसोईघर पहुंचि चुकी रहैं। सायद शुक्लाजी खातिर चाय बना रहीं, ह्ववानै त बोलीं, बसि यही क्यार कसरि रहि है रहे। अबहीं वंदे मातरम पर बहस करइयां रहैं अब द्याखौं बंदर कि नाय हियन हुवन झांकनौ लाग।शुक्लाजी याक दांय किचन कि तरफ देखेनि, फिर टिल्लू कि बांह पकरि क वहिका अपनी गोदी म बैठारि लीन्हेनि। टिल्लू क बालन पर हाथ फिरावत भै उइ समझावन लाग, अरे, आयशा क बिहाव तय हुइगा गै। उई अब दुसरे घरै जइहैं। उनका कौनो केरि नज़र ना लागे, एहिके मारे उनकी अम्मा पहिना देती हैं आयशा क काले कपड़ा।टिल्लू अपनी खोपड़ी त पिताजी क्यार हाथ हटाएन औ मुंह घुमाक बोले, तौ का सादी तय होएक बादि सब मुसलमान करिया कपड़ा पहिनन लागत हैं और मुंह छुपाक घर ते बाहर निकरति हैं?” बरहीं क्लास के लरिकवन क पढ़ावै वाले शुक्लाजी इ सतईं क्लास क लरिका केरे सवाल के आगे निरुत्तर हुइगे। शुक्लाजी बस धीरे त मुस्कुरा दीन्हेनि। पहले टिल्लू क तरफ देखेनि, फिर टिल्लू कि दादी यानी अपनी अम्मा की तरफ। दादी किचन म रखे मटका तेरे पानी निकारि क गिलास म डारि रहीं।

तनिक द्यार सोचि क शुक्ला फिर बोले, यू द्याखौ तुम्हरे गले म का परा है? काला धागा। यू धागा अम्मा तुम्हरे गरे म एहिके मारे डारा हइन कि तुमका कौनौ केरि नज़र ना लागै। बस वइसेहे आयशा कि अम्मा उनके गरे म डार दीन्हेनि काला कपड़ा..एहिमा..” “लेकिन रफ़ीक बतावति रहैं कि वहिका बुर्का कहति हैं। औ आयशा केवल गरे म ना डारे रहै उई वहिका ओढ़े रहै। का अपने गांव एत्ते खराब आदमी रहति हैं कि बुरी नज़र त बचै खातिर केवल धागा त काम नाईं चलति आयशा क्यार। बेचरेऊ क पूरी चादर लप्याटै क परति है काला धागा केरि?” टिल्लू एहि दांय बीचै म बात लपकि लीन्हेनि। दादी अबै लगे फिर ते आएक तख्त प बैठि गई रहैं लेकिन बाप बेटा कि या बतकही सुनिकै फिर ते जान लागीं। शुक्लाजी ते उई बोलीं, बच्चा तुमही समझाओ अपने इ बांदर कइहां, हम चाय बनवाइति है, नाऊन दाई...। शुक्लाजी फिर ते अपने लरिका कि तरफ मुख़ातिब भे, हां तो का कहि रहे रहौ तुम टिल्लू बहादुर?” “जी वौ आयशा..काला कपड़ा... टिल्लू कि सुई जानौ अबकि अटकि गै है। शुक्लाजी फिर कोसिस कीन्हेनि अपने लरिकवा क समझावै केरि, द्याखौ बछरा। उ का है कि हर धर्म क मानै वालेन क्यार अपन अपन रीति रिवाज होति हैं। मुसलमानन केरि औरते बाहर जाती हैं तो बुर्का पहनती हैं, यौ उन क्यार रिवाज आय। उनके हियन बिट्यावा बुर्का ना पहिरैं तो ट्वाका टोकी होति है।

दादी क धीरज जानौ अब लगे जवाब दइगा। रसोईघरै त बोलीं, अरे सब ड्रामा है। वहिका का परी है, को है वहिके घरै ट्वाकै वाला। महतारी अंधरी हुईगै औ बाप परा है ना जाने कौने सहर म।

(जारी....)


(चित्र www.anthonyzierhut.com से साभार)

Saturday, December 05, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (5)

स्कूल म दूसर घंटी बाजे के बाद सब लरिकवा औ मास्टर मैदान म एकट्ठा भे। पहिले प्रार्थना भै फिर राष्ट्रीय गान। प्रार्थना खत्म होए क बाद सब लरिकवा अपनी अपनी क्लासन म जा रहे। टिल्लू क साथै तीन चार लरिकवा औरउ है। टिल्लू का वंदे मातरम बहुत नीक लागत है। उइ अब्यौ गुनगुनाए रहे – सुजलाम सुफलाम। तबहिनै टिल्लू क पाछे पाछे आवत लरिकवा टिल्लू क ट्वाकति है, यार यू गाना जब स्कूल म गावा जाति है तो हम पंचे तो चुप्पै ठाढ़ रहिति।टिल्लू क या बात सायद पहली बार पता चली। हुइ सकत लाइन म ठाढ़े रहै कि वजह तेरे कबहू इ बात पर इ गौर नाई कीन्हेनि। मुला आज या बात जैसे ही इनका पता चली, टिल्लू चौंके, काहे? रफ़ीक?”

घर पर मौलवी साहब आवत है उर्दू पढ़ावन, उइ कहति हैं कि यू गाना बुत परस्ती आय।रफ़ीक सब बात साफ साफ कह दीन्हेनि। बुत परस्ती, का मतलब एहि क्यार?” टिल्लू खातिर यू शब्द अजूबा लाग। लेकिन रफ़ीकौ केरि उमर सायद या सब समझै वाली है नाई, यार, समुझि तो हमहूं नाईं पाएन लेकिन मौलवी साहब कहति हैं तो मानै क तो परिबै करी। अब्बू हु कहत रहै कि स्कूल म वंदे मातरम ना गाएओ।टिल्लू रहत ज़रूर मुसलमानन के पड़ोस म हैं लेकिन इनकौ या बात आजु पहली बार पचा चली तो बिचरेऊ स्वाचन लाग। कहै लाग, पता नाईं हुई सकत है इ गानै म कुछ मामला होए। आजु पुछिबे पिताजी तेरे। चलौ यार क्लास क्यार टाइम हुईगा। घंटा लागे देर भै।

लरिकवन क बातचीत चलि ही रही रहै तेहि लगे पीछे त पीटीआई मास्टर साहब आएगे। उन क्यार हाथ धीरे त टिल्लू केरे कांधा प परा औ बहुतै गंभीर आवाज़ सुनाई परी, प्रेयर क बादि सीधे क्लासै जाएक चाहि। हियन ठाढ़े का बतकही हुई रही?” “बस मास्टर साहब जइहि रहे रहन।टिल्लू औरु कुछु बोलि ना पाए। पीटीआई मास्टर साहब पानी म ईंटा मारि क आगे निकरि गे। ई पीटीआई मास्टर साहब हमका लैकि एत्ता परेसान काहे रहत हैं?” टिल्लू तनुक झंझुलान। लेकिन रफ़ीक टिल्लू क कंधे पर हाथ धरिकै समझाएन कि परेसान न हो। सब लरिकवा क्लास की तरफ चलि दीन्हेनि। रफीक याक दांय पीछे मुड़ि के देखेन। पीटीआई मास्टर साहब केरि नज़र वहिकै तरफ लागी दिखाईं परीं। रफ़ीक तनिकु सहमि ऐसि गे। सब लरिकवा बरहीं क्लास के आगे ते निकरे। क्लास म टिल्लू क पिताजी अंगरेजी पढ़ा रहे। टिल्लू की रफ्तार तनिकु तेज़ हुइगे। सब लरिकवा आगे निकरि कि अपनी अपनी क्लास म दाखिल हुइगे।

घर मा सब अपन अपन काम निपटा रहे। दादी रसोई त बाहर निकरीं औ हाथ धोक तख्त पर आराम करन लागीं। नाउन दाईं आंगन म पोंछा लगा रहीं औ कल्लू घर केरे कीमती फर्नीचर पर ते गर्दा साफ करि रहे।

गली क उइ छ्वार अमीर हसन अपने लकड़ी क टाल पर दुई चारि बुजुर्ग मौलविन के साथै कौनिउ बात म मशगूल हैं। एकु मौलवी शुक्लाजी की अटारी पर लाग लाल झंडा तन उंगरी करति है। हवा आजु तनुक तेज़ चलति है। तूल क्यार झंडा हवा म पूरी रफ्तार त लहरा रहा।

स्कूल क बाहर बिल्कुल सन्नाटा है। दुई चार रिक्सा वाले अपन अपन रिक्सा लाइन त लगाए रहे। कुछ मेहरिया और बुजुर्ग लोग गेट पर इकट्ठा हुई रहे। स्कूल क भीतरौ बिल्कुल सन्नाटा जानि परत है। अलग अलग क्लासन मइहां मास्टर लरिकवन क पढ़ा रहे हैं। तबहिनै स्कूल की घंटी बाजति है। छुट्टी कि घंटी। लरिकवा क्लासन त भर्रु मारिक क भागति हैं। कौन क कोई बात केरि फुर्सत नाईं। जूनियर सेक्सन क्यार लरिकवा तो ऐसे भाग जानौ जेल क फाटक खुलिगा होए। स्कूल त लइकै बाज़ार तक लरिकवै दिखाई परि रहे।

लकड़ी की टाल पर मौलविन की बातचीत औ कानाफूसी जारी है। टाल क सामने वाली यानी हिंदुआने तरफ केरि गली तेरे शुक्लाजी आवत दिखाई पर रहे। अपने अपने दुआरे बैठ लोग उनका नमस्ते करत हैं। याक दुई लरिकवा चौतरा परे ते उतरि क उनके पाएं छुई रहे। टाल पर बैठे मौलविन केरिउ नज़र शुक्लाजी पर परति है, उइ हुअन त उठिकै जान लाग। शुक्लाजी अपनी हवेली के गेट तक पहुंचे तो जैसे आदतन उन केरि नज़र याक दांय टाल तन चली गै। शुक्लाजी केरि नज़रें अमीर हसन त मिलीं। दून्हौ याक दूसरे क देखेन। अमीर हसन क चेहरा पर कौनौ भाव नाईं आवा। बस दून्हन की नज़रे याक दूसरे त टकराईं। जानौ मसीन क्यार पुर्जा होएं, ऐसिहि जुंबिश भै औ दून्हन क्यार हाथ याकै साथ ऊपर उठे। शुक्लाजी केरे मुंह ते निकरा – नमस्ते। अमीर हसन बुदबुदान – सलाम अलैकुम। शुक्लाजी हवेली क गेट खोलिक भीतर दाखिल हुइगे।

(जारी...)

Friday, December 04, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (4)

स्कूल कि यूनीफॉर्म पहिरे तमाम लरिकवा स्कूल कि तरफ दौरत जा रहे। राह म साइकिल वाले ऐसी वैसी बचिकै निकरि रहे कि कौनो लरिकवा चोटा ना जाए। बाज़ार क्यार दुकानदार अपनी अपनी दुकानदारी म मसरुफ हुइगै हैं। बाज़ार म लोगन कि आवाजाही बढ़न लागि है। टिल्लू इन पंचन के बीच त निकरैक कोसिस कइ रहे। तबहिनै एकु मोटरसाइकिल वाला रफ्तार मइहा भीड़ म घुसति है और याक बुर्केवाली तेरे टकराएव के बाद आगे निकरि जाति है। टिल्लू अपनिहि धुनि मा मगन आगे आगे जा रहे। मोटरसाइकिल वाला टिल्लू त टकरावै वाला रहै कि तबहिनै याक बुर्कावाली टिल्लू क्यार हाथु पकरि क किनारे खींचि लीन्हेसि। बुर्का तनिक द्यार कइहां चेहरा पर ते हटा तो टिल्लू तुरतै इनका पहिचान लीनिहेनि, आयशा।

यू बताओ तुम इत्ता बेखयाली म काहे रहत हौ, अबहि यू मोटरसाइकिल वाला...?” आयशा कि आवाज़ म बड़प्पन औ ममता क्यार घुला मिला रंग जानि परा लेकिन टिल्लू आयशा क पहलि दांय बाज़ार म देखि क हैरान हैं, अरे तुम हियन का कर रही हौ।“ “द्याखत नाई हौ खरीदारी। लेकिन चेहरा छिपाए केरे?” आयशा टिल्लू केरे इ सवाल पर कुछू बोली नाईं, बस मुस्कुरा दीन्हेनि। टिल्लू क यू जान परा जैसे दादी जौनि परी वाली कहानी सुनवति हैं, उनहिन तेरे याक परी निकरि कि इनके सामने ठाढ़ि हुइगे है। फिर एकदम त उनका होस आवा तो बोले, बतउति काहे नाईं, यू काला कपड़ा?” आयशा का समझावैं इ नान्हें लरिका कइहां कि बुर्का काहे पहिना जाति है। बस एत्तहै कहि पाईं, तुम स्कूलै जाओ नहितौ देर हुई जाई।तबहि एकदम तेरे आयशा केरि नज़र टिल्लू ते थोड़ा दूरी पर पीछे आवत याक मनई पर परी। पाएन म चकाचक पालिस कीन्हि भई काली चप्पल। काली किनारी केरि कलफदार धोती। याक हाथ म बंधा सुर्खं कलावा। दूसरे हाथे म चकमति गोल्डन घड़ी। दस बजै वाला है। तनिक तनिक पियर रंग क्यार रेसम क्यार कुर्ता। गले म छ्वाट छ्वाट रुद्राक्षन केरि माला। चेहरा पर अलग तरह क्यार कर तेज़ दिखाई पर रहा। माथे पर लाग है चंदन औ रोली क्यार टीका।

आयशा समझ गईं कि टिल्लू अबहि हियन त नाई भाग तो बिचरेउ केरि आफत आ जाई। धीरे त टिल्लू केरे कान क तीर अपन होंठ लाक बुदबुदाईं, जल्दी भागौ, तुम्हार पिताजी पीछे आ रहे।“ “अरे हमका देखेन तो नाईं। ना अबै तक तो नाई देखेनि लेकिन तुम जल्दी तेरे निकरौ हियन तेरे।नान्ह क्यार टिल्लू फटाफट आगे जा रहे लोगन केरे बीच त जगह बनाएनि औ स्कूल क तरफ निकर भाग। आयशा कि सांस म सांस आई। तबहीं शुक्लाजी सामने त निकरे। शुक्लाजी केरि नज़र आयशा प परी तो उई चौंके। आयशौ शुक्लाजी क देखि तुरते हाथ जोड़ि कि नमस्ते कीन्हेनि और खोपड़ि झुकाएकि आगे निकरि गईं। शुक्लाजी स्वाचन लाग, आयशा! खान साहेब केरि बिट्यावा। या तौ वक़ालत पढ़न गै रहै रायपुर- हिदायतुल्ला यूनीवर्सिटी मइहां।लेकिन शुक्लाजी केरि कौनौ बात सुनै खातिर आयशा हुअन कहां रहैं। उन तौ निकरि गईं आगे। भीड़ क बीच जगह बनावत। शुक्लाजी तनिक द्यार ऐसे हे ठाढ़ वहिका देख्यात रहे। फिर चलि परै कॉलेज की तरफ।

कॉलेज अब हियन त दिखाई परन लाग है। आवै जावै वाले लोगन म ते तमाम लोग रुकि कै शुक्लाजी की पैलगी कर रहे हैं। याक दुई लोग नमस्ते कइके हो आगे बढ़ि जात दिखाई परत हैं। तबहिने सड़क किनारे बने मेडिकल स्टोर क्यार मालिक दुकान त निकरि आवा औ शुक्लाजी के पाएं छूएसि, फिर हाथ जोड़ि क ठाढ़ हुइगा, मास्टर साहब। इंटरवल म टाइम निकारि कि अइसि आय्ओ त तनुक इ ड्रग इंसपेक्टर वाला मामला देखि लीन्ह्यो।शुक्लाजी मेडिकल स्टोर वाले क खोपड़ी तेरे अपन आशीर्वाद क खातिर धरा हाथ हटाएन औ बोले, अरे तिनगारी हम तो आज भोरहरे त निकरे हन। गै रहन गोड़ियाने म पंचायत करन। अब द्याखौ इंटरवल म खाना खाए घरै जइबे तो टाइम मिलति है कि नाईं। वैसे तुम्हार तो लाइसेंस किराए क्यार है। तुम का कौन परेसानी।तिनगारी क चेहरा पर परेसानी साफ दिखाई देति है, अरे मास्टर साहब लरिकन क रोटी चलि जाति है इ दुकान तेरे नहितौ अब हियन कहां दुकानदारी। सबै तो कानपुर उन्नाव त सामान लावन लाग हैं। कस्बन म तो अब दुकानदारिहु चौपट हुइगै है। एकु लरिकवा राखा रहै, अंग्रेजी पढ़ै लिखे खातिर वहौ भागि गा।

कौनौ बात नाई। तुम फिकरि ना करौ। हम देखि देबे यू मामला। शुक्लाजी केरि बात सुनिकै मेडिकल स्टोर वाले तिनगारी क चेहरे पर तनिकि राहत आई। दून्हौ जन जब तक बात करति रहे, लोग शुक्लाजी क्यार पाएं छुअन खातिर हुअन लाइन लगा दीन्हेनि। शुक्लाजी याक दांय फिरि ते उइ छ्वार देखेनि जैसी आयशा गइ रहैं। आयशा केरि दूर याक झलक दिखाई दीन्हेसि। शुक्लाजी फिर कुछु स्वाचन लाग।

(जारी...)