Sunday, December 06, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (6)


दादी तख्त प बैठे लकड़ी कि रिहल पर धरी रामचरित मानस पढ़ि रहीं। पासै म बाई काम करि रही। टिल्लू तख्त पर बैठि हैं। स्कूल केरि यूनीफॉर्म पासै म परी है, इ केवल कच्छी पहने तख्त प बैठ हैं। सब किताबें पूरे तख्त प हियन हुअन फैली परी हैं। दादी क रामचरित मानस पाठ जारी है, परहित सरिस धरम नहीं भाई। पर पीड़ा सम..तबहिनै टिल्लू अपना सवाल दागिन, दादी, रफ़ीक वंदे मातरम काहे नाईं गावति हैं?” टिल्लू यू सवाल बाल सुलभ हरकत केरे साथ पूछेनि लेकिन जैसे इ सवाल ना होए कौनौ बम फाट होए। नेरे काम कर रहि नाउन दाई एकदम त पोछा लगावब बंद कई दीन्हेनि। दादी हु क्यार पाठ बीचै म रुकि गा। बगल म काम कर रहा कल्लू क्यार हाथ जहां क तहां रुकि गे। दादी क चेहरा पर गुस्सौ है औ इ सवाल क लैके बेचैनी हु। उइ अब्यौ गौर त टिल्लू क्यार चेहरा देखि रहीं। नाउन दाई औ कल्लू इंतज़ार म हैं कि दादी का बोलिहैं। दादी लंबी सांस लीन्हेनि औ इत्तै कहि पाईं, इ जौन मुसलमान हैं...। तेहिलेहे शुक्लाजी दालान तक पहुंचिगे।

शुक्लाजी अपनी जेब त पेन निकारि क नेरेहे धरी मेज पर धरेन। कल्लू लपकि कइहां शुक्ला जी के हाथ ते किताबें पकरेसि औ अलमारी म ठीक त लगावन लाग। शुक्लाजी अपन कुर्तौ निकारि क कल्लू क पकरा दीन्हेनि औ बगल म धरी आराम कुर्सी पर पसरि गे। नाइन दाऊ पीतल क नक्काशीदार गिसाल म पानी लईं आईं। शुक्लाजी पानी क्यार दुई घूंट लइके टिल्लू क तरफ देखेन औ मुस्कुराति भै बोले, का सामान्य ज्ञान बढ़ावा जा रहा है टिल्लू बहादुर?” दादी जौन अबै लगे चुप्पै बैठि रहैं, रामचरित मानस कि पुस्तक सम्याटै लागीं, साथै म अपने लरिका त बोलीं, बच्चा, अब तुमही समझाओ एहि सनीचर क। पता नाईं कहां कहां त औ का का सीखि आवति है और दिमाग हमार खराब कीन करति है।टिल्लू क समझि नाइ आवा कि उइ कौनि गलती कई दीन्हेनि। उई बसि दादी क बरबरावति देखि रहे। शुक्लाजी अपने लाडले कि तरफ देखि क मुस्कुराए तो टिल्लू कि जान म जान आई। चेहरे क्यार तनावौ दूर भागि गा। दादी उठिकै चली गईं किताब धरन। तो दून्हू बाप बेटा क्यार संवाद सुरु हुइगा।

पिताजी, आयशा काले कपड़ा काहे पहनती हैं?” टिल्लू अपन पहिला सवाल भूलि क नवा सवाल कई दीन्हेनि। अब लगै दादी रसोईघर पहुंचि चुकी रहैं। सायद शुक्लाजी खातिर चाय बना रहीं, ह्ववानै त बोलीं, बसि यही क्यार कसरि रहि है रहे। अबहीं वंदे मातरम पर बहस करइयां रहैं अब द्याखौं बंदर कि नाय हियन हुवन झांकनौ लाग।शुक्लाजी याक दांय किचन कि तरफ देखेनि, फिर टिल्लू कि बांह पकरि क वहिका अपनी गोदी म बैठारि लीन्हेनि। टिल्लू क बालन पर हाथ फिरावत भै उइ समझावन लाग, अरे, आयशा क बिहाव तय हुइगा गै। उई अब दुसरे घरै जइहैं। उनका कौनो केरि नज़र ना लागे, एहिके मारे उनकी अम्मा पहिना देती हैं आयशा क काले कपड़ा।टिल्लू अपनी खोपड़ी त पिताजी क्यार हाथ हटाएन औ मुंह घुमाक बोले, तौ का सादी तय होएक बादि सब मुसलमान करिया कपड़ा पहिनन लागत हैं और मुंह छुपाक घर ते बाहर निकरति हैं?” बरहीं क्लास के लरिकवन क पढ़ावै वाले शुक्लाजी इ सतईं क्लास क लरिका केरे सवाल के आगे निरुत्तर हुइगे। शुक्लाजी बस धीरे त मुस्कुरा दीन्हेनि। पहले टिल्लू क तरफ देखेनि, फिर टिल्लू कि दादी यानी अपनी अम्मा की तरफ। दादी किचन म रखे मटका तेरे पानी निकारि क गिलास म डारि रहीं।

तनिक द्यार सोचि क शुक्ला फिर बोले, यू द्याखौ तुम्हरे गले म का परा है? काला धागा। यू धागा अम्मा तुम्हरे गरे म एहिके मारे डारा हइन कि तुमका कौनौ केरि नज़र ना लागै। बस वइसेहे आयशा कि अम्मा उनके गरे म डार दीन्हेनि काला कपड़ा..एहिमा..” “लेकिन रफ़ीक बतावति रहैं कि वहिका बुर्का कहति हैं। औ आयशा केवल गरे म ना डारे रहै उई वहिका ओढ़े रहै। का अपने गांव एत्ते खराब आदमी रहति हैं कि बुरी नज़र त बचै खातिर केवल धागा त काम नाईं चलति आयशा क्यार। बेचरेऊ क पूरी चादर लप्याटै क परति है काला धागा केरि?” टिल्लू एहि दांय बीचै म बात लपकि लीन्हेनि। दादी अबै लगे फिर ते आएक तख्त प बैठि गई रहैं लेकिन बाप बेटा कि या बतकही सुनिकै फिर ते जान लागीं। शुक्लाजी ते उई बोलीं, बच्चा तुमही समझाओ अपने इ बांदर कइहां, हम चाय बनवाइति है, नाऊन दाई...। शुक्लाजी फिर ते अपने लरिका कि तरफ मुख़ातिब भे, हां तो का कहि रहे रहौ तुम टिल्लू बहादुर?” “जी वौ आयशा..काला कपड़ा... टिल्लू कि सुई जानौ अबकि अटकि गै है। शुक्लाजी फिर कोसिस कीन्हेनि अपने लरिकवा क समझावै केरि, द्याखौ बछरा। उ का है कि हर धर्म क मानै वालेन क्यार अपन अपन रीति रिवाज होति हैं। मुसलमानन केरि औरते बाहर जाती हैं तो बुर्का पहनती हैं, यौ उन क्यार रिवाज आय। उनके हियन बिट्यावा बुर्का ना पहिरैं तो ट्वाका टोकी होति है।

दादी क धीरज जानौ अब लगे जवाब दइगा। रसोईघरै त बोलीं, अरे सब ड्रामा है। वहिका का परी है, को है वहिके घरै ट्वाकै वाला। महतारी अंधरी हुईगै औ बाप परा है ना जाने कौने सहर म।

(जारी....)


(चित्र www.anthonyzierhut.com से साभार)

3 comments:

Unknown said...

सही कह्योऊ असल मा लरिकन खातिर जिनगी एक खुली किताब कि तना ह्वोत है उनके खातिर जैसन जिया जाये या जिया जाये पावे ऊहै जिनगी ह्वोत है टिल्लू का जानै ई बुरका कहे व्हाढ़ा जात है ऊ तो बस इत्ते जाना चाहत है कि आयशा काहे खातिर करिया कपड़ा व्हाड़े रहत हैं असल मा धरम तौ अपने हिंया जिनगी जियै का तरीका (life style) का कहा जात है जे जैसे जियै ऊ ओह्कै धरम आय लेकिन हमहिं सब उलटफेर कै दिना - ई ऊई धरम कै अहीं यें बिना उनका यह पहिनै का चही लरिकै यहि बात अच्छी तरीके से कै लेत हैं सही माने मा हिन्दुस्तान मा धरम कै जौन मतलब ह्वात है ऊ टिल्लूऐ जानत हैं काहे से ऊ जियै खातिर कौनो बंधन नहीं मानती जहाँ मजबूरी ह्वात है हूआं उनकै सवाल बनि जात है

Unknown said...

बहुत सही मरमु पकड़्यो भैया। हमारि मेहनत सफल भै। जुग जुग जियौ।

Amrendra Nath Tripathi said...

भैया !
अबोध ज्यादा ' रेस्नल ' होयके सोचत है , कहूँ - कहूँ |
बच्चा बड़ेन से ज्यादा समझा चाहत है | सीधा सवाल
उठायौ है धरम औ ' रिचुअल ' पै केन्द्रित ...
...................... आभार ,,,,,,,,,,,,