Monday, December 07, 2009

अवधी उपन्यास - क़ासिद (7)

दुबई सहर। दोपहरि हुइगै औ सूरज जि तना जेठ म अपने हियां तपति है, वहिते कई दर्जा ऊपर सूरज दुबई म तपि रहा। सड़क पर हिया हुआं याक दुई मज़ूर दिखाई परति हैं औ जिनका बहुत ज़रुरी है वेई घर ते बाहर निकरे हैं। चाहे पैदरि होय या फिर एसी कारन मइहां। दुबई म दौलत सड़कन पर हर तरफ नज़र आवति है। लेकिन बर दुबई के आगे औ सहर त बस तनिकुइ दूरि पर है मज़ूरन क मोहल्ला केस। गांव देहात छोड़ि क अमीर बनन आए तमाम हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, बंगलादेसी, नेपाली और श्रीलंका क्यार रहैया हियन ऐसे रहति हैं जैसे याकै गांव क्यार रहै वाले होएं औ बरसन ते याक दूसरे क पहिचानति हैं। रहै क खातिर कौनौ कौनो भागसाली कमरा पागे नहितों तमाम लोग अपने हियन रेलगाड़िन पर लदे दिखाई देन वाले लोहे के बड़े बड़े कंटेनरन म हियन घर बनाए हैं। लोहे क दीवारै धूम प जब तपती हैं तो याहै लागति है जैसे भीतर रहै वाला तंदूर पर पकि रहा।

आजु जुम्मा है। जुम्मा क दिन दुबई म छुट्टी रहति है। हियन लोग सनीचर तेरे हफ्ता केरि सुरुवात मानत हैं। मज़दूरन कि येई बस्ती मा बनी मस्जिद तेरे खान साहब याक नई उमरि क लरिका केरे साथ निकले। दून्हन के सिर पर धागन त बुनी भै खास नमाज़ी टोपी है। ख़ान साहब कि कमर म तनिकु झुकी है। पता नाईं ऊमर क बोझ है कि जवान बिटिया के बियाहे क्यार, उई सहारा लेइके धीरे धीरे डोलि रहे। माथे पर चुहिचुहा आवा पसीना दुसरे हाथे त प्वाछति प्वाछति बोले, मियां, इ बुढ़ापा म अब या गर्मी नाई झेलि जाति। आयशा क्यार निक़ाह हुई जाए तो बस ह्ववानै गांव म रहनि लगिबे। जौनु कुछु या मेहनत है तो बस बिट्यावा केरे बियाहे तकै है। फिर दुई मनईन का गुज़ारा ख़ातिर त फत्तेपुरै म कुछ कुछ न कुछ करि लेबे। हम ना अइबे फिर ते लौटिक इ तपिश मइहां।लरिकवौ उनकि हां म हां मिलाएसि, हां, चच्चा। अपनी धरती प जौनि तसल्ली है, वा दूसरे मुलुक म भला कहां?” खान साहब लरिकवा क बात म दर्द महसूसेन, लेकिन लरकिवा क हौसला न टूटे, एहिते बात बनाए दीन्हेनि, तसल्ली क खू बात कीन्ह्यो तुम। तसल्ली कहूं नाई है वा तौ आंखी बंद होएक बदि ही मिलति है। और रहि गै बात अपने मुलुक केरि तो मियां जहां अल्ला मियां क सहारा मिलि जाए वाहै अपनि जगह, वहै अपनि जमीन।

लरिकवा बतकही के मूड म दिखाई परा, तुरतै सवाल दागि दीन्हेसि, कौनौ ख़बरि आई का गांव तेरे?” “अरे भइया हम तो ऊपर वाले हे के सहारे छांडि आए रहेन। औ हुअन पता नाईं बेगम क कौनु समझाए दीन्हेसि, उई चली गईं पड़ोस केरि मेहरियन संग मोतियाबिंद क अपरेसन करावे सरकारी अस्पताल। इ सरकारी डाक्टरन क कौनौ मोह माया तौ है नाईं। रही सही नज़र रहै वहौ चली गै। यू तौ कहौ आयशा केरि पढ़ाई पूरी होइ चुकि रहै तो वा आ गै वापस गांवै। नहिं तौ न जाने का होतै। कहां तो वहिके अरमान रहै सहर म अपन औ अपने गांव क नांव रोशन करेक, कहां बिचरेउ परी हैं गांव म अम्मा की देखभाल म।दून्हू जनै बातें करत करत खान साहब क घर के नेरे आएगे। अपन दून्हौ हाथ उठाएक खान साहब फिरिते दुआ मांगेनि, या अल्लाह, हमरी बिटिया पर रहम करति रह्यो। एकु दोस्त रहै गांव म वहौ फिरकापरस्तन के साथे हुइ लीन्हेसि।“ “अच्छा चच्चा सलाम।लरिकवा खान साहब त विदा लइके रुखसत भा। खान साहब अपन कंटेनर मइहां बने घर के अंदर दाखिल हुइगे।

फतेपुर चौरासी म स्कूल की छुट्टी हुई चुकी है। चपरासी हर दर्जा मइहां झांकि झांकि केरे ताला लगा रहा। शुक्लाजी स्कूल के गेट त बाहर निकरि रहे हैं। हाथ म दुई चार किताबैं उनके हमेसा रहति हैं।

आयशा अपने घर के अहाते में बैठि हैं। समहें याक घर के चौतरा पर बैठ टिल्लू उनका दिखाई पर रहे। टिल्लू के नेरे संझली बैठी हैं, छोटक्केन की अम्मा। छोटेक्केन के अब्बा ओमान म नौकरी करति है और घर ते उन क्यार रिस्ता बसि चिट्ठिनै तेरे जुड़ा है। यू तो टिल्लू कइहां इ मोहल्ला कि मेहरिया परका लीन्हेनि चिट्ठी लिखै क ख़ातिर नहिं तौ इ मोहल्ला म चिट्ठी लिखउबौ कौनौ जंग जीतेत कम नाई रहै। जब पोस्टमैन चिट्ठी लैके आवै तो वहिकि चिरौरी करौ, पैसा कौड़ी देओ औ तबहूं उनका मन होए तो उई चिट्ठी लिखै नहिं तौ कहौ कहि दें कि टाइमै नाईं।

टिल्लू क संझली आजु फिर दुआरे त निकरति भै बुला लीन्हेनि। बस्ता तेरे याक किताब निकारि क टिल्लू वहि पर कागज़ धरे पेन खोलि रहे, चच्ची, पिछले हफ्ता जौनि चिट्ठी लिखवाई रहौ, वहि क्यार जवाब आवा कि नाईं।संझली क आंखिन म आंसु भरि आए, बोलीं, कहां बच्चा। पता नाई मिली होकि ना। टिल्लू क्यार पेन खुलि चुका है। संझली ब्वालब सुरू करें वहिके पहिले उइ चिट्ठी क माथा बिंदी बनावत हैं। दहिने छ्वार ऊपर गांव क नांव लिखेनि, फिर आजु केरि तारीख डारेन। और फिर लिखन लाग - जनाब बदरुद्दीन साहब, बाद सलाम के मालूम हो कि यहां सब खैरियत से हैं। और आपकी खैरियत खुदा बंद करीम से नेक चाहते हैं। दीगर अहवाल ये है..। संझली बोलीं, अबै का लिख्यौ?” टिल्लू मुस्कुरान लाग। अपनी काबिलियत प गुमान करेक मौका मिलतै टिल्लू खुस हुई जाति हैं, चच्ची, घर पर जौनि चिट्ठी अवती हैं, उनके सुरु म लिखा रहति है अत्र कुशलं तत्रास्तु। लेकिन, जौनी चिट्ठी हम चच्चा केरि पढ़िति है, उनकेरि सुरुआत ऐहि तरह होति है - बाद सलाम के मालूम हो कि यहां सब खैरियत से हैं। और आपकी खैरियत खुदा बंद करीम से नेक चाहते हैं। दीगर अहवाल ये है..तौ वहै हमहूं लिखि दीन।संझली क तो ऐसै लाग जैसे चिट्ठी कौनौ बरह्मन क्यार लरिकवा की बजाय पिछवाड़े के मदरसा क्यार लरिका लिखि रहा होए। टिल्लू की खोपड़ी प उई दुलार ते हाथ फेरेन औ अपनी बात ब्लावन लागीं। टिल्लू क्यार पेन रफ्तार पकरि लीन्हेसि। ईद आवै वाली है अउर घर पर याकौ पैसा नाई हैं। बड़क्केन का कपड़ा बनवावैक हैं अउर बाहर वाला किवाड़ौ बदलावै वाला है। गांव की हवा ठीक नाई है।टिल्लू क आखिर केरि लाइन समझि म नाई आई। उई ऐसी वैसी सूंघेन औ फिर चच्ची कि तरफ द्याखन लाग।

साम क बेरिया है। हल्की हल्की हवा चलि रही। ऐसी संझली टिल्लू कि खोपड़ी पर हाथ फेरेन, वैसी दादी छत पर आ पहुंची कौनौ काम तेरे। लरिकवा क याक मुसलमान के चौतरा पर बैठे देखि क तो जैसे उनका करंट लागि गा। पूरी ताकत लगाक उई चिल्लानी, टिल्लू....

दादी कि उमरि भले जादा होए लेकिन आवाज़ म उनकि अब्यौ दम बाकी है। पूरे मोहल्ल म आवाज़ गूंजी। आयशा अपने अहाता म बैठे बैठे हे चौंकि परीं। टिल्लू आवाज़ सुनेनि तो वोउ सनाका भे। जल्दी जल्दी बाइ एयर वाले लिफाफा क भीतर कागज धरेनि और चिट्ठी संझली के हवाले कई के बस्ता उठाक कूदि परे चौतरे क नीचे और पलक झपकै क पहिले पहुंचेगे अपने दुआरे।

(जारी...)

4 comments:

Amrendra Nath Tripathi said...

भैया !
जवन चीजि यहि ब्लॉग पै मिलत है , ऊ कहूँ अउर नाय..
सहजै म दुबई कै सैर कराइ दिहेव ..
पूरी तरह ठीक ह्वै जाई तौ अउर टिपियाई ..

Unknown said...

अपन ख्याल राख्यौ। ऊ जादा ज़रूरी है भैया। कौनौ बात केरि दिक्कत होए तो बताएयो ज़रूर। हिचकिचाएओ ना।

Unknown said...

यू हिन्दुस्तानै मा होय सकत है कि घर परिवार छोडि कि मनई बिदेस मा परा रहे काहे से उन्है पता है हिन्दुस्तान मा भले गावं ज्यादा होय लेकिन असली जिनगी गाँवे मा बसत है तब्बे ई हियाँ ईद केर परेसान हैं हुवां ऊ इनके चिंता मा हलकान हैं

Unknown said...

हां..शिरीष भैया। ज़िंदगी क असली मज़ा हिंदुस्तान केरे गांवनै मइहा है।..आजु आगे लिखब।