Tuesday, October 07, 2008

किस्सा पांडे सीताराम सूबेदार

बात आगे बढ़ावै ते पहिले पहिले तनुक बानगी द्याखौ। ई कुछ प्रसंग आहीं जउन याक अवधी किताब तेरे लीन गे हैं।

1. ठगी क्यार प्रसंग:....रात मा जब हमरे सब रुकेन तौ हमैं इहै सोचि-सोचि कै बहुत देर तक नींद नहीं आई कि ई सब ठग हैं! हम जागै कै पूरी कोसिस किहेन लेकिन थोडी देर बाद सोइ गयन! कुछै देर बीता कि हमार आंख मुर्गा के बांग अस आवाज से खुलि गय! हम उठि के बैठ गयन तो देखेन कि मजदूरन मा से एक-दुइ मनई हमरे लोगन के लगे हैं जे सोवत रहे! हम बहुत जोर से चिल्लायन और हमरे मामा तुरंतै तलवार लइ कै उनकी ओर लपके! ई सब पलक झपकत भय लेकिन तब तक ठग देवनारायन के भाई कै रेसम कै रस्सी से गटई घोंटि चुका रहे और तिलकधारी का बेहोश कई दिहे रहे! मामा तिलकधारी के उपर खडे ठग का काट डारिन और तिलकधारी कै जान बचि गय! यतनी देर मा ठग हमरे मामा कै सोना वाली जंजीर चोराइ लिहिन जेकर दाम अढाई सौ रुपया रहा और तिलकधारी कै तमंचा लै उडै! वहि समय पहरा देय कै जिम्मेदारी तिलकधारी कै रही लेकिन वै सोइ गय रहे! ....
2. लरिकवा क गोली मारै क्यार प्रसंग:.....एक दिन लखनऊ के लगे एक घरे मा कयू जने पकरि लिहा गए! वै सब सिपाही रहे! ओन्हैं पकरि कै, बान्हि कै हमरे रेजीमंट कै कमांडर के आगे पेस किहा गय और अगले रोज सबेरे आडर भय कि सबका गोली मारि दिही जाय! वहि समय फैरिंग पारटी हमरे जिम्मे रही! हम सिपहियन से ओनके नावं और रेजीमंट पूछेन! पांच-छह जने के बाद एक सिपाही वहि रेजीमंट कै नांव लिहिस जेहमा हमार बेटवा रहा! हम ओसे पुछेन कि का ऊ लैट कंपनी कै अनंती राम का जानत है औ उ कहिस कि ई वही कै नांव है! अनंती राम बहुत जने कै नांव होत है यहि मारे हम पहिले ज्यादा ध्यान नहिं दिहेन! दुसरे, हम पहिलेन मानि चुका रहेन कि हमार बेटउवा सिंध मा बुखार से मरि गय एहसे बात हमैं नहीं खटकी लेकिन जब ऊ कहिस कि ओकर गांव तिलोई है तौ हमार करेजा हक्क से होइ गय! का ऊ हमरै बेटवा रहा? यहि मा कौनौ सक नही रहि गय जब ऊ हमार नांव लइकै कहिस कि वै हमरे बाबू आंय! फिर ऊ हमसे माफी मांगत हमरे गोडे पै गिरि परा! ऊ अपने रेजीमंट के बाकी सिपहियन के साथे गदर मा चला गय रहा और लखनऊ आइ गय रहा! एक दायं जौन होय क रहा, होइ गय; ओकरे बद ऊ का करत? अगर ऊ भगहूं चाहत तौ कहां जात?ओन्हैं सब का संझा कै चार बजे गोली मारि जाय का रही औ अपने बेटवा का गोली मारै का काम हमहीं का करे का रहा! ई है किस्मत?......
3. काहे भा ग़दर :.....गदर कै आग मुसलमान लगाइन और हिंदू भेडी यस ओनके पीछे-पीछे नदी मा चला गए! बगावत कै असल कारन ई रहा कि सिपहिन का ताकत कै नसा होइ गय रहा और अफसरन के लगे ओन्हैं रोकै कै ताकत नहीं रही! एसे सिपाही ई समझि लिहिन कि सरकार ओनसे डेरात है जबकि सरकार ओनपै भरोसा करत रही, यहि मारे कुछ नही कहत रही! लेकिन केहु के बेटवा बागी होइ जाय तौ ओहका घरे से नहीं निकारि दीन जात! हमैं लागत है कि यहि गदर के लिए बागी बेटवा का जौन सजा मिली है ओकर असर बहुत दिन तक रही। .....भ्रष्टाचार पर विचार:.....बरतानी अफसर ई सुनिकै बहुत गुस्सा होइ जात हैं कि केहू घूस दिहिस है! ओसे पूछा जात है ऊ घूस काहे दिहिस! ओका सायद नहीँ पता होत कि ऊ मनई इहै सोचि कै घूस देत है कि घूस कै कुछ पैसा साहब के लगे जात है! यही मारे ऊ साहब से कुछ कहत नही काहे कि चपरासी से लइकै किलरक तक सब ओसे इहै कहत हैं कि पइसा सहबौ क गय है! हम यस कौनो दफ़्तर के बारे मा नहीं सुनेन जहां किलरक ई न कहत होंय कि साहब घूस लेत हैं! वै चाहत हैं कि घूसखोरी चला करै काहे कि ओनकै तौ जिन्नगी यही से चलत है! हमरे गांव कै पटवारी एक रोज हमसे कहिस कि हमरै गलती रही होई जौन हम्मैं तरक्की नहीं मिली या यतनी देर से मिली!......वइसे बिलैती और हिंदुस्तानी सिपहियन मा ई खुब चलत है और घूस के मामला मा ओनमा कौनो फरक नहीं है! हम जानित है कि साहब लोग घूस नहीं लेते लेकिन हमसे ज्यादा पढा-लिखा कयू मनई दावा से कहत हैं कि साहब लोग घूस लेत हैं! जब वै खुदै इहै काम करत हैं तौ और काव कहिहैं?.....

अब हम तुम पंचन का बताई इ किस्सन की असली बात। इ सब किस्सा लीन गे हैं किताब- किस्सा पांडे सीताराम सूबेदार तेरे। सूबेदार सीतारान (१७९७-१८८०) ईस्ट इंडिया कम्पनी औ फिर अंग्रेज सेना मइहां याक सिपाही केरि तरह काम कीन्हेंन। ऊइ पेंशन लइके रिटायर भे रहैं। सीताराम अवध इलाका क्यार रहैं और ऊइ खुदै अपनि आत्म कथा अवधी मइहां १८६०-१८६१ केरे बीच लिखी तेइन। बादि मइहां अहिक्यार अनुवाद अंगरेजी मइहां जेम्स नोर्गत कीन्हेन। ई किताब कित्ता खास रहै एहि क्यार पता एही बात तेरे चलत है कि अंग्रेजन क टाइम नौकरी खातिर आवै वालेन कइहां या किताब पढ़ब ज़रूरी रहै और एहि केरि याक परिच्छौ होति रहै।

किस्ता पांडे सीताराब सूबेदार क्यार जौन रूप अब मिलति है, वौ सीताराम पांडे क्यार लिखा ना आए। या किताब बाद मइहां मशहूर पत्रकार मधुकर उपाध्याय (पहिले उइ बीबीसी केरी हिंदी सेवा म रहैं फिर हिंदुस्तान आइके औरी औरी जगह काम कीन्हेन। सन १९१५ मइह सर गिरिजाशंकर वाजपेयी सिविल सेवा केरे अपने इंटरव्यू मइहा कहा तेइन कि या किताब सीताराम पांडे ने उनके दादा कइहां दीन तेइन। बादि म वोउ या किताब पढेन लेकिन बाद मइहां या किताब उनते कहूं खो गै। मधुकर उपाध्याय अहिका ढूंढेक बहुत कोशिश कीन्हेन लेकिन बेचरेउ ढूंढि ना पाए। फिर उइ यह किताब फिर ते लिखेनि अउर अवधी म लिखेनि। या किताब कुछ साल पहिले नई दिल्ली केरे सारांश प्रकाशन तेरे छपी रहै।

8 comments:

Neeraj Rohilla said...

पंकजजी,
अवधी समझने के लिये थोडा समय देना पडा लेकिन इसको पढने का अपना मजा आया । काश हम भी अवधी में फ़र्राटे से बोल पाते :-)

Unknown said...

अवध के जिनगी के बाइस्कोप आय ई किताब। एहिका पूरा पीठियाठोंक (धारावाहिक)चलाओ। उपधिया जीहिन से मांग ल्यो, दै दैहीं।

शोभा said...

बहुत अच्छा लिखा है. ब्लाग जगत में आपका स्वागत है

Unknown said...

आप सब लोगन क्यार बहुत बहुत धन्यवाद। अवधी साहित्य सागर मा राम चरित मानस के बादौ क्यार बहुत मोती हैं, डुबकी लगाय दीनि है, द्याखौ कित्ते मोती मिलत हैं।

सादर,
पंकज

लोकेश Lokesh said...

ब्लाग जगत में आपका स्वागत है

प्रदीप मानोरिया said...

समाचार के लिए धन्यबाद चिठ्ठा जगत में आपका स्वागत है मेरे ब्लॉग पर भी समय निकाल कर दस्तक दें

Unknown said...

भाषा एक दूसरे को समझने बूझने जांचने परखने या यूं कहें, एक दुसरे कि संवेदनाओं को महसूस करने का एक साधन है और लोक जन तक इसको सहज रूप में पहुंचाने का काम लोक भाषा करती है उनमे से अवधी भी एक है इसको कितने तरीके से जन जन तक पहुंचाया जाए इसमें आपका यह प्रयास निश्चित तौर पे प्रशंसनीय एवं सराहनीय है

Unknown said...

अवधी भाषा म काम करैं ताईं सुक्रिया