Saturday, January 30, 2010

अवधी उपन्यास- क़ासिद (14)

सांझ घिरि आई। थोरेहे द्यार म आसमान म नखतौ चमकन लाग। नौकर चाकर लोग अपने अपने काम म व्यस्त हुइगै और शुक्लाजी टीवी खोलि क बैठि है टीवी द्याखन। आजु दुई तीन दिनि बादि बत्ती आई है। फत्त्तेपुर चौरासी जैसे गांवन म बिजली आवबु कौन्यो त्यौहार ते कम नाई है। पहले तो बत्ती खूब आवा करति रहै, लेकिन पिछले चुनाव म इलाके क विधायक हुइगै समाजवादी पार्टी क्यार और सूबे म सरकार बनिगै बहुजन समाज पार्टी केरि। बस तबहि ते फत्तेपुर मा बिजली बरसात कि नाईं भगवान भरोसे हुइगै।

डिशटीवी केरि जब सुरुआत भै तो शुक्लाजी के घर मा जिले क्यार पहला डिशटीवी लाग रहै। समाचार चलत होएं तो शुक्लाजी की अम्मौ आ जाती है टीवी द्याखन। टीवी परिहां समाचार चलि रहे। शुक्लाजी और उनकी अम्मा दोनों जने याक याक कुर्सी पर बैठि क समाचार देखि रहे। एत्तैहेम टिल्लू हु कमरा म घुसे। देखिन क सबक्यार ध्यान टीवी तन लाग है तो येऊ टीवी द्याखन लाग।

शुक्लाजी के घर ते थोरिहु दूर अमीर हसन क टालौ पर हलचल है। हुअन बिजली क खंभा त कटिया डारि क जलावा गा बल्ब चमकि रहा है। रेडिया पर समाचार आ रहे अउर चार पांच बुजुर्ग मनई बैठि क समाचार सुनि रहे। सब मनई चुपै बैठि है। एत्तेह म बत्ती चली गै। याके बुजुर्ग के मुंह ते तुरंते निकरा –

या अल्लाह, अबकी दांय जानौ ईद पर फत्तेपुर मा रौनक नाई रही।

चहुं गिरदा अंधेर हुइगा तो अमीर हसन रेडियो बंद कई दीन्हेनि।

रात बहुत हुइगै मियां। चलो भीतर चला जाए। बत्ती क्यार जित्ती द्यार क्यार दरसन बदे रहैं, उइ हुइगे। अब बत्ती नाई आई।

दूसरके बुजुर्ग अपन जज्बात रोकि नाई पाए।

अबै द्याखौ जन्माष्टमी पर पूरा रात बत्ती रहै, लेकिन रमज़ान हैं तो बत्ती क कहूं पता नाईं। चुनाव अइहैं तो आ जइहैं नेता लोग, वोट मांगै और कहिहैं चौबीसो घंटा बत्ती आइ गांवन मा। ई फत्तेपुर क्यार नसीब कब बदलिहैं, पता नाईं।

अमीर हसन त रहा नाई गा, उई गला खंखारि क बोले, चच्चा, नेता लोगनै त किस्मत बदलि जातै तो आजु हम पंचै यू दिन नाईं देखि रहे होइत।

कोलिया क उई छ्वार आयशा खिड़की तीर ठाढ़े अमीर हसन क टाल प बैठे लोगन केरी बातें सुनि रहीं। एत्ते म भीतर त उनकी अम्मा आवाज़ लगाएनि, अरे कहां हौ बिटिया......

आयशा तुरतै अपन ध्यान खिड़की त हटाएन और तख्त पर बिछौना बिछावति भै जवाब दीन्हेनि, आ रहिन अम्मीजान.. बस तुम्हार बिस्तर लगा रही रहन..

आयशा की अम्मा तेहि ले धीरे धीरे लकड़ी केरे सहारे अउर दीवार टटोलति भै हुअन लगे आ गईं। आयशा बिछौना बिछा ईं तो अम्मा ह्वानै पौढ़ि रहीं। आयशा नेरेहे याक खटिया पर लुढ़कि गईं। तनिक द्यार क चुप्पी क बाद आयशा क अम्मा बोलीं, बच्चा सबेरे अब्बा क खत लिख दीन्ह्यौ। और कल्लि ही स्पीड पोस्ट म डारि आएओ। अब्बा अबै लगे पैसा नाईं पठैएन। औ यहौ लिखि दीन्ह्यौ कि अब तौ गांवौं म दूध वाले और रिक्शावालेन तीर लगे मोबाइल हुइगै हैं। हुइ सकै तो एकु मोबाइल तुम्हरै हो खातिर भेजि दें। कब लगे दूसरेक घर जाक फोन सुना जाए। पीसीओह एत्ति दूरि है।

आयशा हूं हां करति रहीं। उनके मन मा तो यहै बात घूमि रही कि का गांवन म बत्ती हु क्यार मजहब क नाम प बंटावारा हुइगा है। कि कौने त्यौहार पर कौने गांव म रौनक रही अउर कौने गांव म अंधेरा।

वइसी आयशा क अम्मा धीरे धीरे बुदबुदा रहीं।

जवान बिटिया कब लगे गांव क चक्कर काटी। जल्दी त अपने घरै जाएं तो हमारि जिम्मेदारी पूरि होए।

का कह्यौ अम्मा?“ आयशा एकदम त चौंकि क बोलीं।

आयशा की अम्मा क चेहरा पर बिटिया त सरारत करै कि मुस्कान तैरि गै, कुछौ नाईं कुछौ नाई। अरे याहै पूछिति आए कि का इमरान क कौनौ खत आवा रहै का आजु?”

इमरान का नाम सुनतै आयशा सरमा गईं। अपने दुपट्टा म अपन मुहं छुपा लीन्हेनि। अम्मा उठि बैठीं तो आयशौ खटिया म उठि बैठि अउर अपन सिर अम्मा कि गोदी म धरि दीन्हेनि। बिटिया क सिर सहलावति भै अम्मा बोलीं, अरे तुम नसीब वाली हौ बिटिया। अब्बा तुम्हरे खातिर कित्ता मेहनती औ कित्ता सुंदर शौहर तलाशेनि है। उ तौ तुमका खतौ लिखन लाग है। मतलब कि हमरी बिटिया क अबहीं त चाहन लाग है।

अम्मा.....आयशा फिर ते शरमा गईं। लेकिन फूटे दीदन क अपनी बिटिया कि या लाज लाली भला कहां दिखाए। या किस्मत तौ कौनौ कौनौ महतारी ह क मिलति है। अम्मा बस मुस्कुरा क करवट बदलि लीन्हेनि। आयशा अब ना जानै का स्वाचन लागीं...।

(जारी...)

Friday, January 15, 2010

अवधी उपन्यास- क़ासिद (13)

शुक्लाजी अपने लरिका पर अपनी अम्मा क पानी छिड़कत देखेन त पानी केरि बूंदन त जइसे उन क्यार अतीत टपकन लाग। वा सामौ अइसिहि रहै। शुक्लाजी केरि छत पर तेरे तमाम टोली आवति दिखाई दे रही रहैं। जेत्ते लोग इ टोलिन म सामिल रहैं सब कि जबान पर याकै बात- जय श्री राम, जय श्री राम।

गांव क बाहर मंदिर त निकरी इ टोलिन म कम ते कम सौ डेढ़ सौ लोग रहैं। चहतीं तो इ लोग हिंदुआने की तरफ तेरे गांव में प्रवेस कइ सकत रहैं लेकिन इरादा पूजा क कम और दूसर जादा रहै। सब टोली मुसलमानी बस्तिन की तरफ रुख कइ लीन्हेनि। टोलिन केरे आगे चलै वाले लोग कमंडलन तेरे पानी की बूंदे आसपास गुजर रहे लोगन पर छिड़कति जा रहे।

मुसलमानी बस्ती तेरे टोली निकरीं तो मेहरिया अपने अपने लरिकन बच्चवन क घरन पर घसीटन लागीं। मुसलमानन क्यार किवाड़ खटाक खटाक बंद हुई रहै। याक आधी मजबूत दिल केरि मुसलमान मेहरिया किवाड़न की सांस त या फिर खिड़किन केरि दरार तेरे झांकि रहीं हैं। तबहिनै याक टोली शुक्लाजी की हवेली क सामने रुकि गै। इ छ्वार त हिंदुआने म घुसतै सबते पहिला घर शुक्लाजी क्यारै परति है। टोलिन म शामिल लोग और जोर जोर चिल्लान लाग – जय श्री राम, जय श्री राम।

सगरी टोली धीरे धीरे याक के पाछै याक शुक्लाजी की हवेली क समहै रुकन लागीं। पाछे अमीर हसन के टाल पर अब मुसलमानन केरि भीड़ लागन लागि है। लेकिन सब के सब मनई अहैं याकौ मेहरिया या लरिकवा नाईं। अमीर हसन टुकुर टुकुर शुक्लाजी की हवेली तन ताकि रहे। नेरेहे आयशा क अब्बा खान साहबौ ठाढ़ है।

शुक्ला जी धोती और कुर्ता पहिने घर ते निकरे। टोली क अगुआई कर रहे पांडे जी कमंडल त पानी लइके शुक्लाजी पर छिड़कन लाग। पाछे त निकरि कि दादी हू समहे आईं। दादी आचमन कीन्हेनि। थारी पर धरी शिलाएं पूजेन। धोती क खूंटे त निकारी क रुपया दीन्हेनि। एत्तेम टिल्लू हवेली त निकरि क बाहेर आगे। इ दादी क धोती पकरे नेरेहे ठाढ़ हैं। पांडेजी टिल्लू क देखि क मुस्करान। थारी त रोली लइके टिल्लू के माथे पर तिलक लगा दीन्हेनि। टिल्लू एत्ति भीड़ देखि क कुछ समझि नाई पाए। तिलक लगावा गा तो इ अपने पिताजी केरे नेरे ठाढ़ हुइगै। पाछे वाली टोली क्यार लोग दादी, शुक्लाजी और टिल्लू केरे ऊपर पानी छरकि रहे।

टिल्लू अइसिहि भीड़ थोरे दिन पहिले अमीर हसन क दुआरे दीखि तेइन। तब जानौ सुट्टू क अब्बा हज करै जा रहे रहै। समझिम तबहूं टिल्लू क जादा कुछ नाई आवा रहे। उनका बस यादि है तो एत्ता कि उन दिन सुट्टू गाना गा रहे रहै - मदीने वाले को मेरा सलाम कहना, मदीने वाले को...। सब टोली आगे निकरि गईं। दादी और शुक्लाजी हवेली क अंदर चले गे। टिल्लू देखेनि कि अमीर हसन के टाल पर लागि भीड़ अबहूं कम नाई परी है। टिल्लू का पता नाईं का एहसास भा इ गावन लाग - मदीने वाले को मेरा सलाम कहना, मदीने वाले को...।

अमीर हसन धम ते याक कुर्सी पर बैठि गै। और द्यार तक हिंदुआने तन जाती टोलिन कइहां द्याखति रहे। टोलिन म सामिल लोग अब्यौ कोलियन म पानी छिरकति जा रहे। जय श्री राम क नारा अब सुनाई तो परि रहे हैं लेकिन इन केरि आवाज अब कम परन लागि है।

तबहिनै हवेली क गेट खुला। शुक्लाजी एकदम त सनाका भै। खोपड़ि क झटका दीन्हेनि। और अबहिं अबहिं जौन कुछ उ सोचि रहे रहैं, वहिके मारे फिर ते याक दाय मैदान कि तरफ देखेनि। लेकिन हुआं तो अब कौनो नाई है। थोरी देर पहिले तक खेलि रहे रहै लरिकवऔ अब हुअन नाई हैं। शुक्लाजी हवेली क गेट तन देखेन। दादी हवेली म दाखिल हुई रही अहै। पाछे पाछे टिल्लू चले आ रहे। कमीज क आस्तीन त अपन मुंह पोंछि रहे, जानौ अपने ऊपर छिड़की गईं पानी क बूंदे साफ कर रहे। शुक्लाजी स्वाचन लाग उई पानी केरि बूंदन क बारे म जौनी शिला पूजन क बखत उन पर छिड़की गई रहैं – का फत्तेपुर चौरासी केरि गंगा जमुनी तहजीब पर उइ पानी की बूंदे तेजाब बनि कै गिरी रहैं?

(जारी....)

Tuesday, January 12, 2010

अवधी उपन्यास- क़ासिद (12)

कुबेरि बेरिया गांवन म वौ बखत होति है जब घरन के बाहर गोरु हरहा पहुंचन लागति हैं। जिनके घर मा लालटेन है उई लालटेन क सीसा साफ करैम औ मिट्टी का तेल चेक करन लागत हैं औ जिनके घर मां कुप्पी है उ अपनि अपनि कुप्पिन केरि बाती क्यार ल्यांड़ा झरिहा क कुप्पी जला देति हैं। येई बेरिया जादातर घरन म चूल्हा जलन लागत हैं जिन क्यार धुंआ गांव केरि कोलियन म महकनौ लागत है और आंखिन म करुवानौ लागत है। लोग अपने घरन तन चल परि हैं, लेकिन टिल्लू गांव क याक छ्वार पर बने मैदान याक बेरवा क तरे बैठ हैं। उन क्यार साथी संगी खेलि रहे लेकिन टिल्लू दूसरी छ्वार मुंह कीन्हे बैठि हैं। उनका अइसे बैठे द्यार हुइगै तौ लरिकवा टिल्लू के नेरे आ गे।

अरे अइसे नई दुल्हिनि कि नांय मूं छुपाए काहै बैठ हौ टिल्लू?”

लरिकवा आक टिल्लू तेरे चुहल करन लाग। याक लरिकवा क ऊ गाना याद आवन लाग जेहिके बारे में लोग कहत है कि यू गायक के एल सहगल कि नांय नाक ते गावति है। ऊ अपन सुर साधेसि।

झलक दिखला जा...

टिल्लू धीरे त पलटे औ तब सब लरिकन क जानि परा कि काहे टिल्लू उनकी तन पीठि कीन्हे बैठ रहैं। उनके हाथ म याक अखबार म लिपटे दुई खजूर लरिकवन क दिखाई परे। जेहिमत याक खजूर टिल्लू मुंह म धरेन और दूसरि कसि क हाथे म पकरि लीन्हेनि।

अरे कुछौ नाईं भाईजान। बस खजूर खा रहे रहन।

लरिकवन क मुंह ते लार असि टपकनि लाग। लेकिन अब याक खजूर क मारे को दंगा करै। सबते बड़ा लरिकवा बस एत्तै कहि पावा, भाइन ते दगा? अकेले अकेले खजूर?” कहे क साथे यू लरिकवा टिल्लू क हाथे ते कागज और खजूर क पन्नी लइकै अइसी वइसी पलटन लाग। तबहिनै वहिका पन्नी पर कुछ छपा भा समझि म आवा।

हूं...पैक्ड इन दुबई..बचुआ तुम्हरे घर ते तो कौनौ दुबई गा नाईं, फिर इ खजूर?”

टिल्लू क चेहरा एकदम त बदलि गा। इनका लाग कि चोरी पकरि गै। लेकिन, साथी संगिन त कौनु डर औ इनते का छिपावै क। टिल्लू साफ साफ बता दीन्हेनि।

अरे आयशा दीन्ह हइन।

टिल्लू क मुंह त आयशा का नांव क निकरा जैसै कौनौ बम फाट होए। सब लरिका याक साथ चिल्लान।

आयशा?”

ओ त्तेरे की.? तुम्हारि दोस्ती हुइगै वहितै? औ हम पंचन क कानों कान सूंघ तक नाई मिलीं। अरे वह तौ हूर परी है!!”

टिल्लू मुस्कान। उनका लाग कि बाजी अबै उनके हाथे त निकली नाई है। लरिकवा जौने जोश त आयशा का नाम सुनिकै पगलान वहितै टिल्लू क मन का बड़ा खुसी भै। उनका लाग जैसे उइ जगु जीति लीन्हेनि औ इस सब लरिकवा सार इन तो मीलन पीछे रहिगै। टिल्लू याक औरि सुरसुरी छोड़ेन।

का नाचति है आयशा...”.

अबकि कौन्यो लरिका केरे गरे त आवाज नाई निकरी। सब सनाका। सब याक दूसरे क मुंह ताकि रहे। सबके मन मा बस यहै बात कि पंडितन क्यार यू लरिकवा तो बहुतै तेज निखरा। यकीन तो सबका हुइगा कि टिल्लू जौनि बात कहि रहे वा सोलहौ आना सही है। लेकिन तबहूं...

कसम ति….” एकु लरिकवा क मन मा तस्दीक करै क इच्छा जागि परी।

टिल्लू तुरतै कसम खा लीन्हेनि। सांच क कौनि आंच।

फिर दूसर सवाल।

तुम कब देख्यौ।

अरे भइया। हमरी छति ते दिखाई परति है। आय़शा रोज़ सबेरे रियाज़ करती हैं और हमरी छत ते उन क्यार आंगन साफ दिखाई परति है।

सब लरिकवन क अबकी सच्ची म लाग कि टिल्लू जगु जीति लीन्हेनि औ इ पंचे बस गिल्ली डंडै ख्यालति रहिगै। सब याक दूसरे क हारे भै योद्धान कि नाई देखि रहै। सुट्टू क चेहरा तो ऐसे उतरि गा जइसे टिल्लू उन क्यार सब कंचा याके दांव म जीते लीन होएन। मन मसोसि क रहिगै कल्लू, तुम्हारि तो निकरि परी टिल्लू यार। ...अच्छा हमका दिखा सकति हौ आयशा क्यार रियाज़?” सुट्टू अइसे पूछेनि जैसे कहि रहे होए कि भैया पतवार तो तुम्हरे है हाथ म रही अब, बस एहिके पहिले क हम किनारे पर छूटि जाइ, नांव म चढ़ा लेओ।

टिल्लू क मुंह ते निकरहै वाला रहे कि काहे नाई भाईजान तुम्हू आ जाओ कल्हि सबेरे। लेकिन फिर उनका दादी क्यार चेहरा यादि आगा। पांय क अंगूठा त मिट्टी कुरेदति भै बोले, ना भाईजान। आप कइसे देखि पइहौ। आप तौ मुसलमान हौ। औ दादी कबहूं याक मुसलमान क अपनी अटारी पर चढ़ै खातिर हां ना कहिहैं।

सुट्टू बात समझि गै। लेकिन दूसर लरिकवा जौन अब सुट्टू त उमरि म कम हैं, उई पूछि बैठि, यू हिंदू मुस्लिम क झगड़ा का है भाईजान?” सुट्टू क मुंह पहिलेहे त उतरा रहै, यू सवाल सुनि कै ऊई दूसरि घांई द्याखन लाग। टिल्लू क्यारौ चेहरा अबकि उतरि गा कि इ चाहैं तोऊ अपने साथिन क अपनी छति पर नाई लै जा सकत। टिल्लू क लाग कि उनके आंसू निकरि अइहैं, सो उइ उठि कै घर तन चलि दीन्हेनि। सब लरिकवौ पीछे पीछे अपने अपने घरन तन चलि दीन्हेनि। सुट्टू अबै लगे आसमान तन ताकि रहे रहैं एकदम त उनका लाग कि सब लरिकव म उई सबते बड़े हैं तौ उई दौरि क एकदम त टिल्लू क तीर पहुंचे औ उनके कंधा पर हाथ धरि दीन्हेनि।

अरे, तुम काहे परेसान होत है टिल्लू। हम पंचै जब बड़े होब तब यू सब झगड़ा झंझट खतम कर देबे। तब तौ तुम आवै द्याहौ न हमका अपनी छति पर।कहिकै सुट्टू टिल्लू केरि पीठ पर धौल जमाएन। टिल्लू क लाग जइसै उनके करेजे पर ते बोझु उतरि गा होए। उई सुट्टू तेरे हाथ मिलाएन, दून्हू दोस्त गले मिलै लाग। टिल्लू सुट्टू केरे गले लाग तो सामने त दादी मंदिर तन ते आवति दिखाई परीं। हाथे म पूजा की थाली और साड़ी क पल्ला खोपड़ी पर। तबहीं दूर गांव की मस्जिद तेरे अजान की आवाज़ सुनाई परनि लागि...अल्लाहो अकबर अल्ला...हो अकबर।

टिल्लू दौरि क दादी तीर पहुंचे, लेकिन एहिके पहिले टिल्लू दादी तेरे लिपटि पावें, ऊई हाथे त दूर रहै क्यार इशारा करन लागीं। टिल्लू समझि गै कि दादी उनका सुट्टू केरे गले लागत देखि लीन्ह हइन। बेचरेऊ चुप्पै दादी त थोरी दूर पर साथै साथ चलन लाग। दादी पूजा केरे लोटा तेरे जल लीन्हेनि औ टिल्लू पर छिरकन लागीं।

ओम अपवित्रा वा पवित्रो वा सर्वांगतोपि वा।

या स्मरेत पुण्डरीकाक्ष स बाह्याभ्यंतर: शुचि:।।

दादी औ टिल्लू घर तन बढ़ति जा रहे। दूर अपनी छत पर ढाढ़ शुक्लाजी यो सब देखि रहै। उनका बीते दिनन केरि बातैं यादि आवन लगती हैं।

(जारी...)