आजु हम पंडित चंद्र भूषण त्रिवेदी उर्फ रमई काका केरि याक कविता लाए हन। रमई काका रहइया उन्नाव क्यार रहइया रहैं अउर बैसवारी अवधी म बहुत कुछ लिखेन। उनक्यार लिखा प्रहसन “बहिरे बाबा” आकाशवाणी लखनऊ के सबते मसहूर कार्यक्रमन म माना जाति है। रमई काका केरे बारे में विस्तार म जल्दी ही लिखब, तेहिले पढ़ौ उन केरि लिखी हास्य कविता – यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो। यह कविता रमई काका केरि कवितन के संकलन “बौछार” तेरे लीनि गइ है, जेहिकार प्रकासन पहली दांय 1944 म भा रहे। तब एहिकेरि भूमिका मसहूर साहित्यकार राम विलास शर्मा लिखी तेइन।
लरिकउनु बी ए पास किहिनि, पुतहु का बैरू ककहरा ते।
वह करिया अच्छरू भैंसि कहं, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
दिनु राति बिलइती बोली मां, उइ गिटपिट गिटपिट बोलि रहे।
बहुरेवा सुनि सुनि सिटपिटाति, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
लरिकऊ कहेनि वाटर दइदे, बहुरेवा पाथर लइ आई।
यतने मा मचिगा भगमच्छरू, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
उन अंगरेजी मां फूल कहा, वह गरगु होइगे फूलि फूलि।
उन डेमफूल कह डांटि लीनि, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
बनिया भोजन तब थरिया ता, उन लाय धरे छुरी कांटा।
डरि भागि बहुरिया चउका ते, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
लरिकऊ चलै असनान करै, तब साबुन का उन सोप कहा।
बहुरेवा लइकै सूप चली, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
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8 comments:
wah pankaj bhaiya.
yaha bhojuri aavazen to kaafi sunaayi padti hai,shayad ye aapka avadhi blog ekdam maulik idea hai.Badhayi.
wah pankaj bhaiya.
yaha bhojuri aavazen to kaafi sunaayi padti hai,shayad ye aapka avadhi blog ekdam maulik idea hai.Badhayi.
kya baat hai sir, soup aur soap ka fark aur uska rishta jiss andaaz mein apne bayan kiya hai,WA HAMKA BAHUT NEEK LAAG...! BADHAI...! PURAN BAATAN KA NAYE ANDAAZ MEIN KAHE KER RANG MANWA KE SAB RAS MOH LIYO RE.
Regards,
Pankaj Tripathi.
baare sukul,
hum tau tumse yahai ki farmaish kariyan rahan, mula tumhe lagat hi intution hui ga aur tum pesh kar deenihu.
cheechaalyadari aageho karat rahao
neek lagi, badhai hoye
vijay tripathi CAWNPORE
पंकज पंडत तुमारा टेंलेंट क्या होगा मैं नहींम जानात। लेकिन प्ततीक्षा करों पथ मैं ही दिखनाऊंमगां.घ सिखी पढी मुरगी रोशनी घर की।
रमइ काका के विषय मे विस्तार से लेख की प्रतिक्षा रहेगी इन्हे रेडिओ पर सुनना बहुत अच्छा लगता था
नीक लगा पढिकै .
एक ठो औरो कविता रही ,तनी वहू पढवावा जाय. " हम गये एक दिन लखनऊवा..."
जय भारतीयम
कुछ टुकड़ा जौन अबै स्मृती मा बचा है वह लिक्खीत है और जैसे याद आये जाई फिर लिखब
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हम गएन याक दिन लखनऊवै स्व कहूं कहूं ध्वाखा होईगा,
हम गएन जौ हज़रतगंजै मा एक बाबू साहेब रहें खड़े,
तहमत पहिने बंडी ओढ़े सर केश धरे,
मूंछन का किन्हें सफाचट्ट,
हम कहेन मेम साहेब सलाम
ऊ कहीं चूप बे डैमफूल
हम कहेन फिरिऊ ध्वाखा होईगा
हम गएन याक दिन लखनऊवै स्व कहूं कहूं ध्वाखा होईगा
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